Saturday, 25 May 2013

एसा अकसर देखऩे मे आता है कि लोग थोड़ा बहुत सुमिरन तो करते है पर भजन नही हो पाता । क्योकि ध्यान स्थिर नही हो पाता। इस तरह वर्षो अभ्यासरत रह कर भी शब्द नही खुलता ।एसा इस लिये होता है क्योकि वे भारी बोझ उठा कर चलते है और जब मंजिल पर पहुच नही पाते तो थक हार कर बैठ जाते है। यदि हम व्यर्थ के बोझ को कम कर ले तो चलना सहज और मंजिल सुलभ हो जाएगी ।
इसके लिये जानना आवश्यक है कि काम की वस्तु क्या है और व्यर्थ का
बोझ क्या है।
पाता हूं कि लोग जीवात्मा को ही सुरत मान बैठे है और आगे बढ नही पाते।
सुरत न तो आत्मा है और न ही जीवात्मा। सुरत एक स्थिति है। जब कि जीव का चेत जो कि आत्मा का कारण है, अपने मूल स्रोत धुन धार की दिशा मे अग्रसर होता है, इसी शुभ मे रत स्थिति को सुरत कहा गया है। अतः आवश्यक है एक सुरत, आत्मा व जीवात्मा के भेद को जानना। तब ही हम स्यम को व्यर्थ के बोझ से मुक्त कर सकते है और शब्द स्वतः , सहज व सुलभ हो जाता है। यही शब्द का खुलना है।
और इसी उद्देश्य से मै अधिकारी जीवों के हित में सुरत , आत्मा व जीवात्मा के भेद का वर्णन करता हूं।

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