Sunday, 26 May 2013



जीवात्मा-का स्वरूप यह है कि,जब परम् तत्व भाव रूप मे प्रकट होता है, तब जीव के प्रारब्ध मे निहित कामनाऍ(अतृप्त इच्छाऍ), भाव के प्रति आकर्षित होती हैं, जिनके पीछे जीव का प्रारब्ध जुड़ा होता है ।
इस प्रकार जब भाव के साथ जीव की कामनाऍ मिलती हैं तब यही भावनाऍ बनकर प्रकट होती हैं ।
यही भावना जीव की सूक्ष्म देह का प्रथम स्तर है, यानी कारण देह पर सूक्ष्म देह की पहली परत है । और चूंकि भावनाऍ सीधे तौर पर जीव के प्रारब्ध से जुड़ी होती है, अतः प्रारब्ध के अनुसार ही जीव की प्रकृति का निर्माण होता है । जो कि आगे चलकर दैहिक विकास क्रम  में, जीव की स्थूल देह यानी योनि के रूप में प्रकट होता है । इस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार ही जीव की योनि, आयु, स्थिति व वातावरण निर्धारित होता है। जिसे विधि का विधान कहा गया है।
प्रसंग वश, यह जानना आवश्यक है कि , कामनाऍ, ब्रहमाण्डीय मन और प्रारब्ध , सूक्ष्म माया का अंग है और शब्द, चैतन्य का व भाव, निर्मल माया का अंग है ।
तो भावनाऍ जो कि कारण व सूक्ष्म देह की गाँठ है, और प्रारब्ध के अनुसार जीव की प्रकृति का निर्माण होता है, तो इस विकास क्रम में , जीव का प्रारब्ध उसकी प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो जाता है। और तन्मात्रा , प्रकृति का मायक रूप व भय और भ्रम , काल अंग रूप हैं । इस प्रकार तन्मात्रा , भय व भ्रम जीव की प्रकृति में अपने मूल रूप में समाहित होते हैं ।
प्रकृति-
प्रकृति के अनुसार ही जीव की प्रवृति, फिर प्रवृति के अनुसार आशाऍ, आशाओं के अनुसार विशवास और विशवास के अनुसार ही जीव की इच्छाओं का विकास होता है, जिसे अंर्तमन या चित कहा गया है और यही प्रकृति से ले कर इच्छाओं तक का विकास क्रम जीव का स्वरूप है ।
तो आत्मा जो की जीव के संग , भावनाओं के माध्यम से जुड़ी होती है, इसी जीव सहित आत्मा को जीवात्मा के रूप में जाना गया है। और यही एक सुरत, आत्मा व जीवात्मा में मूल भेद है ।
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