सुरत शब्द----3
ध्यान के विषय में बहुत चर्चा हो चुकी है, सतयुग से कलयुग तक़। बहुत कुछ लिखा, पढ़ा और उपदेश किया गया है। हमें लगता है हमने सब जान लिया। फिर भी ध्यान नहीं सधता।
तो क्या हम जानते हैं कि ध्यान वास्तव में है क्या.... ध्यान को साधने से पहले आवश्यक है,ध्यान से परिचय।
ध्यान एक सम्पर्क है, जो हमारे वातावरण व देह से लेकर हमारी आत्मा तक व्यापक है। और जिस भी स्तर पर हम उससे सम्बन्ध स्थापित कर पाते हैं, हमें लगता है कि हमने उसे साध लिया। चाहें भौतिक या दैहिक, वैचारिक,मानसिक या भावनात्मक। कोइ विरला ही भावात्मक स्तर पर ध्यान को साध पाता है और यही प्रेम है।
मनुष्य देह सम्पूर्ण आत्मिक और भौतिक रचना का, छोटे स्तर पर एक नमूना या मॉडल ही है, तो ध्यान का केन्द्र व मूल भी इस देह में ही
है। पर कहॉं.......... यही खोज का विषय है।
देह मे आत्मा है ,उर्जा है और उष्मा भी है। ध्यान वास्तव में हमारी आत्मिक उर्जा की उष्मा ही है और यही ध्यान का वास्तविक स्वरूप है। जिसका केन्द्र व स्रोत हमारी उर्जा व मूल आत्मा है।
आत्मा प्रकाशमय शब्द स्वरूप है। प्रकाश जो कि चेत है, उसकी ऊर्जा ही शब्द है और हमारा भाव ही इस ऊर्जा की ऊष्मा है।
जब हम भौतिक जगत के प्रति अपने द्वारों को बन्द कर लेते हैं, तब इस ऊष्मा का निकास वातावरण में काफी हद तक रूक जाता है।इस प्रकार हमारी ऊष्मा , ऊर्जा में समाहित होने लगती है और ऊर्जा सिमट कर चेत यानी प्रकाश की दिशा में अग्रसर हो जाती है, यही एक सुरत की स्थिति है।
अक्सर लोग कहते हैं कि, मैं ध्यान करता हूं। कोई दस मिनट, कोई आधा घण्टा , कोई दो घण्टा ध्यान करने का दावा करता है, .....तो यह उनका भ्रम मात्र ही है। ध्यान किया नहीं जा सकता , ध्यान हो जाता है। स्वतः वह स्थिति आ जाती है जब कि जीव ध्यान की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। चूंकि ध्यान का सम्बन्ध स्वः यानी चेत से है, अतः ध्यान स्वतः ही होता है , किया नहीं जा सकता ।
ध्यान न तो कर्म है और न ही क्रिया , ध्यान एक प्रक्रिया है। जो कि ऊष्मा व ऊर्जा के जगत के प्रति बहाव को रोक कर ही संभव हो पाती है, और द्वार बन्द करना हमे आता नही। तो प्रशन यह है कि ऊष्मा व ऊर्जा के निकास के द्वारों को बन्द कैसे करें.............
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विशवविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
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