सुरत शब्द---4
हमारी इन्द्रियां ही मुख्यतः,हमारी देह से ऊष्मा व ऊर्जा के निकास का द्वार होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियां व पाँच कर्मेन्द्रियां। ज्ञानेन्द्रियों से मुख्यतः ऊष्मा का निकास होता है और कर्मेन्द्रियों से ऊष्मा के साथ ही ऊर्जा का भी निकास होता है। द्वार बन्द करने का अर्थ है इन्द्रियों को रोकना, पर कैसे ....
कर्मेन्द्रिया प्रकट व ज्ञानेन्द्रिया सूक्ष्म रूप में होती हैं।दौनो ही इन्द्रियों का सम्बन्ध हमारी बुद्धी से जुड़ा होता है। इस प्रकार बुद्धी दौनों ही इन्द्रियों के मध्य एक सम्पर्क सूत्र की तरह कार्य करती है। और कर्मेन्द्रियों द्वारा ही मुख्य रूप से हमारी ऊष्मा व ऊर्जा का निकास होता है। इसमें जबान जिसके द्वारा वाणी का उच्चारण करते हैं, आंख व कान मुख्य हैं जिनके द्वारा हमारा ध्यान या ऊष्मा व ऊर्जा का बहाव जगत् की दिशा में अधिक होता है।
तो जब ज़बान,आँखें व कान बन्द होते है तब हमारी ऊष्मा यानी ध्यान भी भीतर ही रूकने लगता है, और धीरे-धीरे वाह्य जगत से सिमटने लगता है। देखने और सुनने में अवरोध की स्थिति में कर्मेन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है,पर ज्ञानेन्द्रियां अधिक क्रियाशील हो उठती हैं और मन में उठते विचारों के साथ कल्पनाओं में लिप्त हो जाती है। तो अब आवश्यक्ता है,मन में उठते विचारों में शिथिलता और ध्यान के अभ्यास की।
ध्यान का अभ्यास यही है कि,हमें ध्यान को अपने भीतर ही रोके रखना है। इसके लिये संतो ने बहुत ही सहज उपाय बताया है कि,दोनों भुकटियों(भवों) के मध्य कुछ भीतर की ओर,करीब एक से॰ मी॰, अपने ध्यान को एकाग्र कर, स्थिर रखना है।
ऍसा करने से ज्ञानेन्द्रियां शिथिल होने लगती है और फिर कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की शिथिलता के कारण उत्पन्न बोध के अभाव में बुद्धि की क्रियाशीलता भी कम होने के साथ-साथ मन में उठते विचारों का प्रवाह भी थमने लगता है। हमें सिर्फ इतना करना है कि ध्यान को अपने स्थान पर स्थिर रखना है, इसके लिये मन में उठते विचारों के पीछे चलना नहीं है,बल्कि साक्षी भाव से बस उन्हें देखते रहना है। अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में उठें, उनकी तुलना न करो,बस उन्हें उठने दो और बहने दो। यदि विचारों के पीछे चल पड़े तो ध्यान भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता, वह भी भटक जाएगा।
इस तरह विचारों का प्रवाह कम पड़ने के साथ-साथ,मन भी शान्त होने लगता है, और एक समय विचार शून्यता की स्थिति आ जाती है। यही समाधीषट होना है।
तो जैसे-जैसे मन शान्त होता जाता है, हमारी ऊष्मा जगत् के प्रति प्रवाहित न हो कर, ऊर्जा में समाहित होने लगती है। इस प्रकार,ऊष्मा या ध्यान जो कि हमारा भाव होता है, उसका ऊर्जा यानी शब्द में समाहित होना ही शब्द का खुलना है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
हमारी इन्द्रियां ही मुख्यतः,हमारी देह से ऊष्मा व ऊर्जा के निकास का द्वार होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियां व पाँच कर्मेन्द्रियां। ज्ञानेन्द्रियों से मुख्यतः ऊष्मा का निकास होता है और कर्मेन्द्रियों से ऊष्मा के साथ ही ऊर्जा का भी निकास होता है। द्वार बन्द करने का अर्थ है इन्द्रियों को रोकना, पर कैसे ....
कर्मेन्द्रिया प्रकट व ज्ञानेन्द्रिया सूक्ष्म रूप में होती हैं।दौनो ही इन्द्रियों का सम्बन्ध हमारी बुद्धी से जुड़ा होता है। इस प्रकार बुद्धी दौनों ही इन्द्रियों के मध्य एक सम्पर्क सूत्र की तरह कार्य करती है। और कर्मेन्द्रियों द्वारा ही मुख्य रूप से हमारी ऊष्मा व ऊर्जा का निकास होता है। इसमें जबान जिसके द्वारा वाणी का उच्चारण करते हैं, आंख व कान मुख्य हैं जिनके द्वारा हमारा ध्यान या ऊष्मा व ऊर्जा का बहाव जगत् की दिशा में अधिक होता है।
तो जब ज़बान,आँखें व कान बन्द होते है तब हमारी ऊष्मा यानी ध्यान भी भीतर ही रूकने लगता है, और धीरे-धीरे वाह्य जगत से सिमटने लगता है। देखने और सुनने में अवरोध की स्थिति में कर्मेन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है,पर ज्ञानेन्द्रियां अधिक क्रियाशील हो उठती हैं और मन में उठते विचारों के साथ कल्पनाओं में लिप्त हो जाती है। तो अब आवश्यक्ता है,मन में उठते विचारों में शिथिलता और ध्यान के अभ्यास की।
ध्यान का अभ्यास यही है कि,हमें ध्यान को अपने भीतर ही रोके रखना है। इसके लिये संतो ने बहुत ही सहज उपाय बताया है कि,दोनों भुकटियों(भवों) के मध्य कुछ भीतर की ओर,करीब एक से॰ मी॰, अपने ध्यान को एकाग्र कर, स्थिर रखना है।
ऍसा करने से ज्ञानेन्द्रियां शिथिल होने लगती है और फिर कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की शिथिलता के कारण उत्पन्न बोध के अभाव में बुद्धि की क्रियाशीलता भी कम होने के साथ-साथ मन में उठते विचारों का प्रवाह भी थमने लगता है। हमें सिर्फ इतना करना है कि ध्यान को अपने स्थान पर स्थिर रखना है, इसके लिये मन में उठते विचारों के पीछे चलना नहीं है,बल्कि साक्षी भाव से बस उन्हें देखते रहना है। अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में उठें, उनकी तुलना न करो,बस उन्हें उठने दो और बहने दो। यदि विचारों के पीछे चल पड़े तो ध्यान भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता, वह भी भटक जाएगा।
इस तरह विचारों का प्रवाह कम पड़ने के साथ-साथ,मन भी शान्त होने लगता है, और एक समय विचार शून्यता की स्थिति आ जाती है। यही समाधीषट होना है।
तो जैसे-जैसे मन शान्त होता जाता है, हमारी ऊष्मा जगत् के प्रति प्रवाहित न हो कर, ऊर्जा में समाहित होने लगती है। इस प्रकार,ऊष्मा या ध्यान जो कि हमारा भाव होता है, उसका ऊर्जा यानी शब्द में समाहित होना ही शब्द का खुलना है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
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