Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ६३

सत्संग बेड़ा सब हितकारी .....

सत्संग , सतगुरु या पूरे साध के संग का नाम है. पर ज़रूरी है कि सतगुरु या साध संतमत का पूरा और पैरोकार हो. हम जीव सभी शुरू मे तो नादाँ ही होते हैं, फिर जब सानिध्य में बैठ कर वचनों को पूरे ध्यान से सुनते और उन पर मनन करते हैं तब ही कुछ गति प्राप्त और सतगुरु की कुछ पहचान हो पाती है.
सच्चे सत्संग की परख कुछ ही बातो से हो जाती है, जो कि अति महत्वपूर्ण हैं.
(१) . सत्वचन वही जो जिज्ञासु के मन में दुनियादारी कि फ़िज़ूल बातो के प्रति धीरे-धीरे उदासीनता पैदा करता जाय.
(२) . सच्चे सत्संग में सत्पुरुष राधास्वामी दयाल कि ही महिमा और कुल मालिक दयाल तक पहुँचने के मार्ग का भेद और मार्ग की मंजिलो व स्तरों का वर्णन ही होता है. वहां किस्से-कहानियों, विरोध या पिछले हो चुके महात्माओं की चर्चा नहीं होती. हकीम लुकमान की तस्वीर के आगे बीमारी सुनाने से अब किसी का इलाज संभव नहीं, सो संतमत हमेशा ही ‘संत सतगुरु वक़्त’ की खोज और सत्संग की ही ताकीद करता है.
(३) . वचन जो जीव को बोध कराता है कि, जीव अपनी भक्ति, प्रेम और प्रतीत को कुल मालिक राधास्वामी दयाल और सतगुरु पूरे के चरणों में किस प्रकार बढ़ा सकता है.
(४) . सतगुरु की हिदायतों में वर्णन उन विघ्नों और रूकावटों का होता है, जो काल और माया एक जिज्ञासु और अभ्यासी के मन में, उसे सत मार्ग से दूर रखने के लिए पैदा करते रहते हैं.
(५) . सतगुरु के वचनों में उन सभी अन्तःकरणीय स्थितियों और प्रभावों का वर्णन होता है, जो जीव को ध्यान पूर्वक सत्संग और अभ्यास और चेतना के ऊपरी मंडलों में खिचाव के समय अपने अंतर में अनुभव होते हैं.
- सत्संग में संकल्प के साथ बैठ कर और ध्यान पूर्वक सतगुरु के वचनों को सुनने से, बहुत से पूर्वाग्रह, भ्रम और संशय स्वतः ही धुल जाते हैं और रूढ़िवादिता से मन की पकड़ ढीली हो जाती है. इस तरह जीव ‘अंतर्यात्रा’ के पड़ावों को धीरे-धीरे तय करने के योग्य बनता जाता है.
- पर समस्या यह है कि अब जीव मे धैर्य की बहुत कमी हो गयी है. सब कुछ बस यूँ ही पा लेना चाहता है. बस इधर-उधर कहीं से सत्मार्ग और अभ्यास की बढ़ाई सुन-सुना कर, सत्संग में आ बैठता है और उपदेश ले कर अभ्यास की जुगत में लग जाता है. तो इस तरह अभ्यास जैसा उचित है वैसा कभी बन नही सकता और न ही अभ्यास में रस ही मिलेगा. क्यूँकी यह अटल है कि जब तक मन के सभी संशय-भ्रम दूर न हों और अंतर में सफाई न हो जाय और राधास्वामी दयाल ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित न हो जायं तब तक मन और सूरत (चैतन्य और चेतना) पूर्णता के साथ ‘शब्द योग अभ्यास’ में रत नहीं हो सकते.
- तो अब समझना चाहिए कि जब जीव सतगुरु के सानिध्य में बैठ कर राधास्वामी दयाल की महिमा के वचनों को चित दे कर सुनेगा और समझेगा, तब ही उसके मन में संतो के वचनों के प्रति कुछ प्रतीत जाग सकती है. फिर जब उस प्रतीत के अनुसार अभ्यास कर के, अंतर में रस और राधास्वामी दयाल की दया को अनुभव करेगा, तब ही घट में सच्ची प्रीत जागेगी और प्रतीत बढ़ती जायेगी. इस तरह एक जिज्ञासु को अभ्यास का शौक एक दिन अभ्यस्त बना देता है.
..... यह मोक्ष नही, ‘मुक्ति’ की राह है
राधास्वामी सदा सहाय ...
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ..... 62
एक मै और एक तू .....
दोनों मिले इस तरह, और जो तन मन मे हो रहा है, वो तो होना ही था .....
क्या मै कोई गीत गा रहा हूँ ?
नहीं, मैं तो भजन कर रहा हूँ. तन से चैतन्यता खिंच चुकी है और मन गगन पर चढ़ कर मगन है. तो यह मगन क्या कर रहा है ?
..... नाद सुन रहा है, अनहद . विशाल वट वृक्ष समा रहा है – अपने बीज में. देह से चैतन्यता गुप्त और मन चैतन्य लुप्त हो रहा है – आत्मचेतना की धार मे. वृक्ष अब सफ़र कर रहा है, अपने बीज की तहों में – उस मगज की ओर, जहां छिपी है चेतना इस वृक्ष रुपी देह की, जहां से फूटा था कल्ला कभी इस देह का.
पर क्यूँ ? क्यूँ कर रहा हूँ मैं यह यात्रा अपने अंतर की ?
..... क्यूँकी ख़ोज है मुझे अपनी, अपने वास्तविक स्वरुप की, मुझ अंश को अपने अंशी की. तो क्या मैं एक ‘आत्मा’ ही हूँ, ‘परमात्मा’ का अंश, जो खोज रहा है अपने अंशी परमात्मा को ? और पूरी हो गयी ‘यात्रा’....
जहां तक बात आत्मा की है, वह तो अंश परमात्मा का ही है.
कबीर साहब ने फरमाया है – “कहु कबीर इहु राम की अनसु .”
गोस्वामी तुलसी दास जी ने फरमाया –
“ईश्वर अंस जीव अबिनासी. चेतन अमल सहज सुख रासी..”
नानक देव ने भी यही कहा – “आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसी गुर बीचारा”
-आत्मा के अंदर परमात्मा है और परमात्मा के अंदर आत्मा है.
..... देह मे चैतन्यता व्याप्त है – मन के चैतन्य होने से, मन चैतन्य है – आत्मा की चेतना से और चेतना अंस है अपने अंसी परम चेतना का, जिसे तुम परमात्मा कहते हो. तो क्या यात्रा यहीं समाप्त हो गयी ? नहीं, ‘यात्रा’ तो यहीं से शुरू होती है. एक नवीन खोज के साथ, कि ‘चेतना’ कहां से आई ?
..... चेतना का स्रोत है ‘चेत’. – स्थूल देह व इन्द्रियों में ‘चैतन्यता’, सूश्म देह यानी मन व अंतःकरण में ‘चैतन्य’ और कारण देह यानि अंतर में ‘चेतना’ या कि आत्मा विधमान और व्याप्त है, जो कि परम चेतना परमात्मा यानी ब्रह्म – जो कि तीनो गुणों से न्यारा है, उसका अंस मात्र ही है. फिर शास्त्रों के अनुसार ‘ब्रह्म’ का भी तो जाग्रत और शैया काल होता है, सभी जीव-जंतु, देवी-देवता, भगवान्, ईश्वर-परमेश्वर सभी का होता है. इससे साबित होता है कि ‘परम आत्मा ब्रह्म’ भी काल खंड की उस व्यवस्था के अधीन ही है जिसे तुम महाकाल कहते हो और जाग्रत व सुप्त अवस्थाओं के कारण स्थिर नही है. ‘चेत’ तो महाकाल की परिधि से भी परे, अनंत के क्षेत्र में सदा एकरस स्थिर है.
हाँ, संत जगत में जीव को ‘चेताने’ ही आते हैं, क्यूँकी जगत में हर चेतना यानी आत्मा वास्तव में अचेत ही है – क्यूँकी वह ‘चेतना’ है – ‘चेत’ नहीं.
..... और संत वही जो चेते हैं.
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा .....61
यह मै ही हूँ...
जो मुझे मालिक से मिलने नहीं देता .
कभी कभी मन विचार करता है की जब मालिक हर देह मे मौजूद है, तो फिर मुझे अपने भीतर नज़र क्यू नही आता ? भीतर ऐसी कौन सी रुकावट है ? और कैसे दूर हो सकती है ?
“एका संगती इकतु ग्रही बसते मिली बात न करते भाई .
अंतरी अलखु न जाई लखिया विची परदा हाउमें पाई ..”
..... अर्जुन देव जी .
मन और आत्मा दोनों ही इस देह रुपी घर मे इकट्ठे ही रहते है पर कभी आपस मे मिलना नही होता . और जब मिलना होगा वही क्षण मन के फिरने का होगा, तब जगत सुहाना न लगेगा. यही जीते जी जगत से मुक्ति का क्षण है.

“हरी जीउ सचा ऊँचो ऊँचा हाउमें मारी मिल्वनिया.”
..... अमर दास जी .
परमात्मा सच्चा और ऊँचे से ऊँचा है पर जब तक हम अपने भीतर से अहं की रुकावट को दूर न करेंगे, परमात्मा से हमारा मिलना न हो सकेगा.

“दादू दावा दूर का, बिन दावे दिन काट.
केते सौदा कर गये, पंसारी के हाट .. “
..... दादू साहेब .
हे दादू , दुनिया में किसी भी चीज़ का दावा न कर . इस दुनियां में तेरा कुछ भी नहीं. जो कुछ भी है उस परमात्मा का ही है. जगत के ये पदार्थ न कभी किसी के हुए हैं , न हो सकते हैं. यह हमारा मोह और अहं के बंधन ही हैं जो इनको अपना समझने को मजबूर कर देते हैं .

कबीर साहेब फरमाते हैं .....
“ काम तजे तो क्रोध न जाई , क्रोध तजे तो लोभा .
क्रोध तजे अहंकार न जाई , मान बढ़ाई सोभा .. “
जगत के पदार्थों के प्रति यह हमारा मोह ही है जो हमे बार-बार देह के बन्धनों में खीच लाता है और अहं भाव मैं डुबो देता है कि यह तेरा है, सब कुछ तेरा है और फिर काम, क्रोध, लोभ, वासनाएं आदि, धीरे-धीरे सभी विकारी दूत मिल कर जीव को भींच लेते हैं.
..... मन फिरे तो कैसे ?
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय .
जो मन खोजा आपना , मुझ से बुरा न कोय ..
कबीरा ..... मुझ से बुरा न कोय .

राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ...60
.....और ध्यान नाम का
इस अभ्यास को सूरत शब्द योग कहा गया है। मतलब यह कि सूरत आत्म तत्व को शब्द की धार के साथ जोड़कर उपरी मंडलों में चढ़ाना। ध्यान रहे कि हर आत्मा सूरत नहीं होती। सूरत का अर्थ है, शुभ में रत । तो जब जीव का आत्म तत्व यानी उसका चेता, चेत कर धुन धार को अंतर में सुनता है, तब यही स्थिति सूरत की है ।और शब्द का अर्थ किसी आवाज या ध्वनि से कतई नहीं है, बल्कि धुन धार से है ।क्योंकि जहां धार जारी और प्रकट है वहां उसके साथ ध्वनि भी होती ही है । धार तो नजर नहीं आती पर उसकी पहचान ध्वनि के होने से ही होती है । जैसे चैतन्य आत्मा हर इंसान में होकर भी नजर नहीं आती पर उसके बोलने से पता चलता है कि इंसान में चेतना है । इसी तरह कुल रचना में समस्त कार्रवाइयां चेतना की शब्द धार से ही हो रही है और चैतन्यता व्याप्त है। तो जहां शब्द गुप्त है वहां चैतन्य भी गुप्त ही है ।
इसी तरह यह ध्वनि अनहद नाद की, जो कि हर अंतर में गाज रही है और बिना मदद किसी जुबान या बाजे के हर वक्त निरंतर जारी है ,कुल मालिक दयाल के दरबार से जारी और आ रही है। यह धुन धार रास्ते के हर एक स्तर, मंडल और चक्रों में ठहर कर और फिर उस स्थान से जारी होकर कुछ बदलाव के साथ लगातार ऊपर से नीचे के मंडलों और हर एक स्तर पर जारी है। इस तरह कुल रचना और हर देह में व्याप्त है ।
जो कोई जिज्ञासू इस शब्द का भेद और पता यानी स्तर दर स्तर जारी शब्द का भेद किसी भेदी से जानकर और अपने पूरे मन और चित्त से इस नाद को सुनता हुआ आंखों के रास्ते से चलना शुरू करें वही धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन उस पद के जहां से की निचले मंडल का पहला शब्द जारी है उसके नजदीक पहुंचता जाएगा और वहां से दूसरे शब्द को पकड़कर चलेगा। इस तरह मार्ग की सभी मंजिलों को तय करता हुआ एक दिन कुल मालिक दयाल के देश में पहुंच जाएगा ।
मालिक कुल अरूप और विदेह है ।उसका ध्यान किसी भी तरह या तरीके से कोई भी नहीं कर सकता पर धुन धार की मदद से जो कि कुल मालिक के चरणों से जारी है और शब्द चैतन्य रुप में कुल रचना और देह में व्याप्त है । उसका ध्यान करते हुए अभ्यासी एक दिन चरणों में अवश्य पहुंच सकता है। शब्द चैतन्य ही मालिक कुल का प्रथम प्रकाटय है । जैसा कि मालिक कुल अरूप है सो शब्द भी अरूप ही है, पर ध्यान के अभ्यास में बहुत भारी मदद देता है यानि ध्याता को उसके इश्ट के चरणों में पहुंचा देता है।
सतगुरु वक्त और पूरा जोकि नाम रूप और शब्द रूप है , इसीलिए सबसे पहले उसी के स्वरूप का ध्यान और ज्ञान आवश्यक है। तब ही जीव के भीतर का शब्द खुलता है । शब्द के बिना खुले तुम जिस रचना की कल्पना मात्र ही गढ़ते हो, सतगुरु पूरा उस समस्त रचना की वास्तविकता का रचनाकार और करतार है । जो इस बात में जरा भी संशय रखा तो तुम कभी भी सतगुरु पूरे के वास्तविक स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकते। इसके सिवा अन्य कोई भी रास्ता या तरीका इस कलयुग में इतना आसान निश्चित और सहज नहीं है । यह वह मार्ग है जिस पर एक 5 साल का बच्चा और 80 साल का बूङा भी समान रूप से सहज ही चल सकता है। क्योंकि चैतन्य धुन धार , जोकि अपने में आत्माओं का भंडार ही है , इससे बढ़कर अन्य कोई धार रची ही नहीं । यही धुन अन्य सभी धारो की करता और उन्हें चैतंयता प्रदान करने वाली है। प्राण की धार भी स्वयं आत्मा यानी जान की धार से ही चैतन्य है। इस तरह सूरत शब्द योग से बढ़कर ना तो कोई जुगत रची गई ,ना है और ना ही हो सकती है।
यहां प्रश्न उठ सकता है कि, क्या कलयुग से पहले या संत मार्ग को प्रकट करने से पहले , अन्य पिछले युगों में जीव की मुक्ति नहीं होती थी?
हां , नहीं होती थी और ना ही किसी की हुई । अब से पहले सभी योग्य जीव, मोक्ष पद को ही प्राप्त होते रहे, पर सच्ची और पूरी मुक्ति किसी की भी नहीं हुई "मुक्ति" और "मोक्ष" के अर्थों में एक भारी अंतर है। जिसे आगे कभी स्पष्ट करूँगा।
परम पुरुष पुरन धनी राधास्वामी दयाल का अवतरण , समद हुज़ूर स्वामी जी महाराज ने फरमाया है कि "अबकी सब्दको ऐसे ही तारेंगे", परम पुरुष के कहने का अर्थ यह रहा और है कि कलयुग में और कोई करनी काम ना आएगी , केवल सतगुरु पूरे के स्वरुप का ध्यान, नाम का स्मरण और ध्यान नाम का ही एक मात्र जुगत है । मोक्ष की जुगत तुम से बन नहीं सकती सो कलजुग में रहकर जीव की मुक्ति की मात्र यही युक्ति है।
जिसका की भेषी व्याख्याकार अपने ही मतलब को साधने के हित में, यह अर्थ समझा देते हैं कि , बस पर्चा भर कर हमसे नाम दान ले लो ,रजिस्ट्रेशन करवा लो , आई कार्ड बनवा लो, नाम रटो या न रटो -पर सतगुरु की सेवा में कमी ना करो ,
आयोजनों में आते रहो क्योंकि तुम्हारे लिए यही उचित है । अभ्यास या भजन में बैठने की कौन कहे ,सतगुरु तुम्हारे सर्व समर्थ हैं, तुम चाहे जगत में कुछ भी करो-" अब की सबको ऐसे ही तारेंगे"।
जिस किसी को जगत से मुक्ति और मालिक कुल में मिलने का सच्चा शौक और पूरी लगन हो, वह कुछ अरसा बिना नागा रोज़ भजन यानि अभ्यास मे बैठे तो मालिक की मौज से सभी प्रमाण उसे अंतर में सवतः ही मिलने लगेंगे । यह करनी का मत है, विद्या ,बुद्धि या कोई चतुराई इसमें कहीं भी साथ ना दे सकेगी । बुद्धि का प्रयोग करने वाले तो अपनी विद्या के अहंकार में संतो के वचन में भी पक्षपात करते और अपनी बुद्धि से तौलते रहे और इस तरह कोरे के कोरे ही रहे । उन्हें मालिक का या उससे मिलने के रस्ते और जुगत का पता ना लगा, सिर्फ बातें ही बनाते रहे और बना रहे हैं। उन्हें यही लगता है कि एक वे ही है जो सब कुछ जानते हैं। पर हकीकत में असल भेद कुल मालिक और जीव यानी सूरत और शब्द की धार से बिल्कुल अनजान और अचेत हैं।
सो जो सच्चे खोजी है और किसी मत विशेष में उनका बंधन नहीं है और ना ही अपनी विद्या और बुद्धि के पूरा होने का अहंकार ही है कि सब कुछ जान और समझ लिया है, वे ही जीव् राधास्वामी मत या संतमत के अनुसार सूरत शब्द योग अभ्यास के योग्य ठहर सकते हैं।
- यही है सतगुरु के स्वरुप का ध्यान ,नाम का सिमरन और ध्यान नाम का।
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ....59
सिमरन नाम का ....
इसमें दो बातें मुख्य हैँ।एक तो नाम और दूसरा सिमरन । पहले नाम से परिचित होना आवश्यक है, तभी तो सिमरन बन पड़ेगा। वरना तो वही रटते रहोगे जो तुम्हें रटाया जा रहा है।
हाँ, मैं तुमसे स्पष्ट कह रहा हूं, राधा स्वामी नाम वर्णात्मक है धनात्मक नहीं और पांच नाम का जो उपदेश है , वह भी वर्णात्मक ही हैं, इनमें से कोई भी ध्वनात्मक नहीं है , क्योंकि इन सभी नामों को लिखा पढ़ा ,बोला और सुना जा सकता है । चैतन्य तो धुन है। चैतंय की धुन को ना तो इंद्रियों से सुना जा सकता है , न वाणी से उच्चारण किया जा सकता है और ना ही किसी वाध यंत्र द्वारा पैदा ही किया जा सकता है। यह तो अनंत निरंतर और अनामी है । जो हर जीव के अंतर में सवतः ही गूंज रही है और मात्र मनुष्य देह में ही वह द्वार और मार्ग है जो तुम्हारी देहिक चैतंयता को मानसिक चैतन्य फिर चैतन्य को अंतर चेतना से जोड़ सकता है।
मालिक कुल तो शुद्ध चेत ही है और समस्त चेतना, इस परम चेत के होने से ही है। सतगुरु जो पूरा है, वह जीव को चेताना ही जगत में आता या भेजा या जगत के जीवो में से उठाया जाता है। चेताने का अर्थ यही है कि जीव की अंतर चेतना को,कुल मालिक अनामी के परमचेत से जोड़ने के मार्ग को लखाना, जतन को बताना और अधिकारी जीव को दया मेहर की सामर्थ से सत्य मार्ग पर आगे बढ़ाना। यही है सत्य मार्ग या संतमत । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है , वह मन के रंजन के सिवा कुछ नहीं।
तो किस नाम से सिमरन करोगे तुम मालिक कुल अनामि का?
तुम्हारे विचार जो कि वर्णात्मक होते हैं और मन में उठते हैं , तो तुम्हें मन को साधने और स्थिर करने के लिए वर्णात्मक नामों की जरूरत पड़ती है । जबकि अनामी की आराधना अंतर में भाव से की जाती है और अंतरयात्रा किसी भी भाषा या वर्णात्मक शब्द के आसरे नहीं होती, वह तो बस अंतर भाव से ही होती है और यह भाव मात्र मनुष्य देह में होकर ही होता है । चारों खानों की अन्य किसी भी देह में अंतर द्वार होता ही नहीं।सतगुरु पूरे इसी द्वार को खोलने आते हैं। तब ही कोई विरला चेतकर अधिकारी बन पाता है ।वरना तो पैदाइश के बाद सभी के भीतर मन की मैल की परतो के चलते चलते यह द्वार बंद हो ही जाता है। इस तरह पांच नाम की रटन उस अनामी तक पहुंचने के लिए, मन की, एक तरह से "वर्मा अप एक्सरसाइज" ही है । अनामि का भला क्या नाम ? तो" राधा स्वामी दयाल "उस अनामी की वर्णात्मक अभिव्यक्ति ही है।
राधा आदी सूरत का नाम स्वामी शब्द निज धाम। सूरत शब्द और राधास्वामी, दोनों नाम एक कर जानी।।
इससे स्पष्ट है कि "राधास्वामी "एक नाम है, अनामी नहीं । दरअसल "राधास्वामी" ऐक स्थिति का नाम है।
वह स्थिति जब की राधा यानि सूरत, उस अनामी में ,जो कि सबका स्वामी , आदि चेत , स्वयं को चेतना रूप शब्द में प्रकट करता है- समा जाती है।
यही चेतना आदि में सतलोक से धारा बनकर उतरी । जो की अति निर्मल होने से "धुन धार" के रुप में प्रकट हुई । यही धुन धार -आदि शब्द सत शब्द और सच्चा सत नाम है । जिसे बड़भागी कोई विरला ही अंतर में सुनता है । बाकी सभी ब्रह्माण्डीय शब्द है। जैसे जैसे इस अति निर्मल धारा में ब्रमांडीएमाया का मल मिलता गया, स्तर दर स्तर इसकी गूंज शब्द में और शब्द दढता में परिवर्तित होता चला गया। जिसे योग शास्त्रों में "नाध" कहा गया है । पंतजलि योग में दस प्रकार के नादों का वर्णन मिलता है और तुम्हें दसवें द्वार के पार जाना है। सभी नादो की ब्रह्माण्डीय इस्तर व चक्रों के अनुसार एक तय सीमा होती है उसके आगे पीछे नाद बदल जाता है । हम जिस भी वाणी, वर्ण या भाषा को प्रकट करते हैं उसके केंद्र में यही चेतना की धारा-" अनहद नाद" ही है। जो की विभिन्न आयामों, स्तरों, चक्रों व् तत्व आदि में लिपटी अंततः देह में प्रकट होती है।
चेतना रूपी शब्द की इसी धारा को अपने भीतर खोजना और फिर इसी चैतन्य धार को , जिसका प्रवाह जगत की ओर हो रहा है , उसे उलटा कर उसके केंद्र और फिर मूल स्रोत की दिशा में बड़ाना ही "सूरत शब्द अभ्यास" या राधास्वामी मत के अनुसार अभ्यास है । मुख्य यही है कि यह चेतना की धारा के जोकि हर अंतर में स्वतः ही गाज रही है । जब उलट कर अपने मूल यानी स्वामी की दिशा में बढ़ती है तब यही "धारा "से "राधा" बन जाती है। और जब राधा-स्वामी से जा मिली, तब हो गई "राधास्वामी"।
पुर प्रश्न अभी वही है कि अनामिका नाम क्या? और सिमरन किस नाम का ?
तो अब कहता हूं और बड़े स्पष्ट रुप से कहता हूं कि -कुल मालिक अजात अनामि का नाम चेतना की गुजं ही है, जो कि हर अंतर में विद्यमान है । तो सिमरन भी इसी नाम का करना है।
सिमरन का अर्थ, किसी विशेष वर्ण या वर्णात्मक शब्दों को दोहराना या रटना कतई नहीं है । सिमरन एक अपब्रह्नश है जिस का शुद्ध है "समरण" यानी याद करना। इस तरह हर अभयास को उचित है कि हर वक्त सतनाम यानी चेतना की धून धार को अंतर में याद रखे- लो हो गया सिमरन नाम का। जिसे हर वक्त याद करोगे उससे मिलने की तडप खुद ब खुद पैदा हो जाएगी, तो उसे खोजोगे भी। खोजोगे तो पाओगे भी और जब पा लिया तो हो गई राधा- स्वामी की।
राधास्वामी जी ।
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा -58
मैं चेता , में चतुर सुजान,
तू चेता, तू मुझसे महान।
अचेते मनुष्य की हद मन है। मन सभी विधाओं का घर है। हर इल्म का फनकार बना देता है । मनुष्य चांद पर कदम रख देता है और सागर की अतल गहराईयों में गोता भी लगा आता है। फिर भी अचेत है । अपने मूल ,आत्म तत्व से अनजान , बेसुध ,भूला हुआ , अपने चेते में नहीं, सो अचेत है । जब तक अपनी आत्मा में न धंसे , अपने अंदर के प्रकाश को ना देखे, बस अंधेरे में ही टटोलता फिर रहा है और खोज रहा है "गॉड पार्टिकल"।
परम पुरुष पूर्ण धनी समद राधा स्वामी दयाल का नर देह में अवतरण हुजूर स्वामी जी महाराज ने सभी जीवो के उद्धार के निमित्त एक बीज मंत्र फरमाया है की- कलयुग में और कोई करनी ना बनेगी ,सिर्फ सतगुरु के स्वरुप का ध्यान, नाम का सिमरन और ध्यान नाम का यही काम आएगा। यह एक फार्मूला है पूरे संतमत और उसके सभी सिद्धांतों का। जिसे डिकोड किए बिना, किसी भी अभ्यासी का भजन में बैठ पाना और टिक पाना कतई संभव नहीं।
इस फार्मूले के तीन मुख्य भाग है।
पहला -सतगुरु के स्वरुप का ध्यान। क्या तुम कर पाते हो? अधिकांशता नहीं। तुम सिर्फ छवि का ध्यान करते हो। क्योंकि स्वरुप से तो तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ ।कोई विरला प्रेमी भक्त ही सतगुरु के स्वरुप को देख पाता है और वही उसका ध्यान कर पाता है ।तुम्हारी कार और ड्राइंग रूम की दीवारों पर सजी तस्वीरें इस बात का सबूत है कि तुम सिर्फ छवि के आगे पीछे ही डोलते रहते हो और अपने मन में अहम पाल बैठे हो कि तुम्हें सब कुछ मिल गया ।जबकि आत्मिक दृष्टि से कोरे के कोरे ही हो । तो जरूरी है कि पहले स्वरुप से परिचित हो लो , ध्यान तो बाद में आएगा ।बिना सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के जीव सतगुरु के स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकता। जगत का प्रेम सच्चा नहीं है, क्योंकि यह शारीरिक और मानसिक होता है।

सच्चा प्रेम पुत्र को वनवास की आज्ञा देकर दुखी नहीं होता बल्कि आशीर्वाद देता है कि पुत्र अपने समस्त कर्तव्य और दायित्व का पालन करना। सच्चा प्रेम किसी के उलाहना देने पर आहत होकर अपनी गर्भवती पत्नी को धोखे से हिंसक पशुओं का आहार बनने के लिए जंगल में नहीं छुड़वाता, यह त्याग नहीं बल्कि उदंडता पूर्ण घोर कायरता है और गर्भस्थ शिशु की हत्या का प्रयास या हत्या धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म हत्या ही मानी गई है ।

तो सच्चा प्रेम क्या है?
सच्चा प्रेम आत्मिक होता है , यह मानसिक विचार नहीं पर आत्मिक भाव होता है , यह मन में नहीं पर हृदय में प्रकट होता है , यह वाणी या कर्मों द्वारा योजना बनाकर नहीं बल्कि स्वभाव से व्यवहारिकता में प्रकट होता है ।

संत अपनी बानी से पहचाना जाता है ,बाने से नहीं । तो जब भी तुम्हारा भाग्य तुम्हे सतगुरु के सामने लायेगा, तुम्हारे हिर्दय के तार स्वतः ही बज उठेंगे । तुम्हारी आत्मा स्वतः ही ललक कर लपक पड़ेगी उनकी ओर ।तुम्हारा मन मस्तिष्क लाख रोकेग तुम्हें , तरह तरह के विचार उठाएगा , की क्यूं दीवाना हुआ पड़ा है ? ऐसा क्या है उसमे ? फिर भी ना रुके तो तरह-तरह की परिस्थितियां पैदा करेगा कि किसी तरह तुम्हारे कदम रुक जाए । तुम्हारे भीतर तुम्हारी सामर्थ और स्थिति का अहम ,जीवन की उन्नति के विचार और अपनों के प्रति मोह पैदा कर देगा और तुम अपने जीवन में उन्नति की चाह लिए लोभ, मोह और अहंकार की चादर मे लिपटे सतगुरु के सामने खड़े होगे, पर कुछ ना मिलेगा । हा, संत सदगुरु वक्त से तो ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा ,क्योंकि प्रेम तो तुम्हारे हृदय में उपजा ही नहीं तुम तो स्वार्थ और अहम के भांडे भरकर पहुंचे हो ।सत गुरु पूरे का होना, जगत और जीव के उद्धार के लिए होता है ना की जीवन की उन्नति के लिए, जब जीव का उधार होता है तब जगत का भी होता है और जीवन स्वतः ही उन्नती के शिखर पर होता है , न की भोगवादिता के ।

सतगुरु की ओर बढ़ने से पहले अपने हृदय को टटोलना जरूरी है । जीवन तो काल का क्षेत्र है, जो कि समय ,परिस्थिति व वातावरण और आयु से बंधा है। यह मुकत नहीं है और देह में तुम्हारा मन काल की ही नुमाइंदगी करता है अतः मन पर वश आवश्यक है । मन का मैल सतगुरु के सानिध्य में ही कटेगा। tv ,वीडियो या cd सुनकर नहीं ।सत गुरु शब्द स्वरुप है और उनका संग ही सच्चा सत्संग। इस सत्य के संग से जैसे जैसे तुम्हारे मन का मैल करता जाएगा वैसे वैसे बोझा भी हल्का होता जाएगा और हृदय में सतगुरु के प्रति सच्चा अमिट प्रेम भी पैदा होता और बढ़ता जाएगा। इस तरह एक दिन भक्ति पूर्ण होकर तुम अपने सतगुरु में एक हो जाओगे ।यही एक भक्त और सद्गुरु का एक रुप होना ही पूर्ण समर्पण है। इस तरह तुम सतगुरु के वास्तविक स्वरुप से परिचित हो जाते हो, जो वास्तव में तुम्हारे भीतर ही कहीं छुपा है । जरूरत है सिर्फ उस पर चढ़ी विकारों की मैल को उतारने की, जिस दिन यह उतर गई , तुम्हारे भीतर का शब्द स्वतः ही प्रकट हो जाएगा और अंतर प्रकाश से भर जाएगा ।अभी भेद सिर्फ इतना है कि तुम अचेत हो और सतगुरु सचेत ।
सतगुरु और पारस में बड़ो अंतरो जान
पारस लो कंचन करे .....
और सतगुरु कर ले आप ।
यही है स्वरूप का ध्यान, जो संत सतगुरु वक्त से सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के बिना सिर्फ एक धोखा ही है ।
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा 56
भीतर का सच........
भारतीय योगियों द्वारा परकाया प्रवेश के विज्ञान को तर्कवादी अतिरंजित कल्पना कह कर टाल देते हैं। दरअसल मनुष्य के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके सूक्ष्म शरीर की महत्ता अकल्पनीय रूप से कई गुना अधिक होती है। अंतर्यात्रा का मार्ग कहीं बाहर भटकने से नहीं मिलेगा यह यात्रा तो अपने भीतर जाकर ही हो सकती है इसकी शुरुआत तन को साधने से होती है तन को साधने का अर्थ प्राणायाम या कोई आसन आदि नहीं है तन को साधने का अर्थ है -अनावश्यक भौतिक क्रियाकलापों में लिप्त ना हो ना । ताकि देह की ऊर्जा जोकि भीतर जाने के लिए आवश्यक है वह बाहर व्यर्थ ना हो अपने भीतर जाने पर सबसे पहले हमारा सामना हमारे मन से होता है कि यही है हमारे भीतर की दे जिसे सुक्ष्म शरीर कहां गया है इस सूक्ष्म की सामर्थ स्थूल देह की तुलना में अत्यधिक होती है जीवनी और मंकीस समर्थ को एक करके ही अंतर द्वारे को खटखटा सकता है मैं और सतगुरु पूरे की दया मेहर से के अंतर में प्रवेश भी कर सकता है जिसके कारण दे कहा गया है जीवन के सत्य दे और ब्रम्हांड की अंदरुनी संग रचना विज्ञान की विधाएं और क्रिया का ज्ञान जिसे दे और माध्यम से संभव है वह प्राण महसूस में शरीर ही है तो एक अंतर यात्री विद्या अभ्यास इसके लिए उचित है कि वह अपने मन वह उसकी सामत से भली भांति परिचित खोलें प्रशांत महासागर में एक दीप है ,समाय। इसके निकट एक जीव पाया जाता है जिसे "पैलोलो" कहते हैं ।यह पानी में चट्टानों के बीच घर बना कर रहता है। यह साल में सिर्फ अक्टूबर और नवंबर महीनों के उन दिनों में जब चंद्रमा आधा और ज्वार अपनी छोटी अवस्था में होता है यह जीव अंडे देने के लिए पानी की सतह पर आता है और वापस लौट जाता है तो इसमें विशेष क्या है ? विशेष यह है कि, पैलोलो जब अपने घर से चलता है तब अपना आधे से अधिक शरीर घर पर ही छोड़ आता है अंडा देने और तैरने के लिए जितना शरीर आवश्यक होता है इतने से ही यह सत्य पर आने का अपना अभिप्राय पूरा कर लेते है । इस बीच उसका छोड़ा हुआ शेष शरीर निष्प्राण निष्क्रिय पड़ा रहता है । लौट कर पैलोलो फिर से उस छोड़े हुए अंग को स्वयं से जोड़ लेता है और पूरे शरीर में प्राणों का संचार होकर फिर से रक्त प्रवाह व अन्य क्रियाएँ प्रारंभ हो जाती है।
यह एक उदाहरण है जो हमें बताता है कि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति शरीर के बिना भी सुचारु रख सकता है । भोतिक शरीर से तो हमारा संबंध अधिक-से-अधिक सौ या कुछ वर्षों का ही है, पर सूक्ष्म शरीर हमारे जीवन धारण करने की प्रक्रिया से लेकर मुक्ति के द्वार तक साथ रहता है। एक शिशु जब गर्भावस्था में होता है तब वह सांस नहीं लेता, तब भी उसके शरीर को ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा पहुंचती और विकास की गति चलती रहती है। उस समय बच्चे की नाभि का संबंध माँ की नाभि से बना रहता है ।नाभी सूर्य का प्रतीक है। प्राणायाम द्वारा तस्तुतः प्रयाणीनि का ही विकास किया जाता है। जिसका चरम विकास ध्यान धारणा और स्मधृष्ट अवस्था में मोक्ष पद की प्राप्ति ही है। प्राणायाम स्वयं में प्राण शक्ति को सूर्य के व्रहद प्राण में घुलाकर स्वयं आधशक्ति मे परिणत हो जाना है । जोकि अंतर्यात्रा का एक पड़ाव मात्र ही है।
स्थूल देह में ना रहकर भी पुराणों में गति बनी रहती है। प्रसिद्ध तिब्बती योगी श्री टी. लाभ सांग रंपा ने अपनी पुस्तक "यू फॉरएवर" में एक घटना का जिक्र किया है कि फ्रांस में क्रांति के दौर में एक देश-द्रोही का सर काट दिया गया। धढ़ से सरके अलग हो जाने पर भी उसके मुंह से स्फुट बुध्बुधहट की प्र
क्रिया होती रही, ऐसा लगा जैसे वह कुछ कहना चाह रहा हो । इस घटना को सरकारी अधिकारियों ने रिकॉर्ड में दर्ज करवाया ,जो कि अभी तक मौजूद है ।
बंदा बहादुर युद्ध के मैदान में शीश कट जाने पर भी धढ़ से युद्ध रत रहे।
अमेरिका के कर्नल टाउन सेंट ने प्राणायाम के अभ्यास से प्राणमय सूक्ष्म शरीर के नियंत्रण में सफलता प्राप्त की और अदभुत प्रयोगों का प्रदर्शन किया। एक बार सैकड़ों वैज्ञानिकों और साहित्यकारों से भरे हॉल में उन्होंने प्रदर्शन किया । वह स्टेज के एक कोने में बैठ गए और ब्लैक बोर्ड पर एक चौक बांध दी गई । इसके बाद उन्होंने अपना प्राणमय सुक्ष्म शरीर अपनी स्थूल काया से बाहर निकालकर , अदृश्य शरीर से ब्लैक बोर्ड पर लोगों द्वारा बोले गए शब्द लिखें वह गणित के कुछ सवाल हल किए ।बीच बीच में वह अपने शरीर मे वापस आकर उपस्थित जन समूह को वस्तुस्थिति समझते जाते थे। इस प्रदर्शन ने लोगो को यह सोचने पर विवश कर दिया की मनुष्य शरीर जीतना दिखाई देता है, यह वहीँ तक सयिमित नहीं है बल्कि वः देह जो अदृश्य है वह इस देह से कही अधिक गुना समर्थ हैं। ऐसे ही प्राण माय ऊर्जा क़े कई प्रयोगों का प्रदर्शन प्रसिद्ध अमेरिकी अणो वैज्ञानिक श्रीमती ज.सी ट्रस्ट ने भी किया है ।
हम सभी जानते है की कबीर साहब की मर्त्य देह गुलाब के ताज़े फूलों मे परिवर्तित हो गयी थी और मीरा की तो देह ही नही मिली। हजरत इसा सूली पर मृत्य घोषित किए जाने के बाद 40 दिन तक अपने शिष्यों के मध्यम सुक्ष्म व् स्थूल देहो में प्रकट होकर अंतरज्यान की शिक्षाओ से परिचित करवाते रहें। फिर सोचो कारण देह की सामर्थ क्या होगी ? इन सभी अनुभवो को एक शब्द अभ्यासी अंतरयात्रा की स्थिति मे सहज ही प्राप्त करता है। जोकि प्राणों की धार पर नहीं पर शब्द की धार के आसरे आगे बढ़ता हुआ परमचेत की धारणा को द्रढ़ करता हुआ हर नाम से आगे बढ़कर अनामी में लीन हो जाता है ।
राधास्वामी जी ।
राधास्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी हेरिटेज ।
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)