Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा -58
मैं चेता , में चतुर सुजान,
तू चेता, तू मुझसे महान।
अचेते मनुष्य की हद मन है। मन सभी विधाओं का घर है। हर इल्म का फनकार बना देता है । मनुष्य चांद पर कदम रख देता है और सागर की अतल गहराईयों में गोता भी लगा आता है। फिर भी अचेत है । अपने मूल ,आत्म तत्व से अनजान , बेसुध ,भूला हुआ , अपने चेते में नहीं, सो अचेत है । जब तक अपनी आत्मा में न धंसे , अपने अंदर के प्रकाश को ना देखे, बस अंधेरे में ही टटोलता फिर रहा है और खोज रहा है "गॉड पार्टिकल"।
परम पुरुष पूर्ण धनी समद राधा स्वामी दयाल का नर देह में अवतरण हुजूर स्वामी जी महाराज ने सभी जीवो के उद्धार के निमित्त एक बीज मंत्र फरमाया है की- कलयुग में और कोई करनी ना बनेगी ,सिर्फ सतगुरु के स्वरुप का ध्यान, नाम का सिमरन और ध्यान नाम का यही काम आएगा। यह एक फार्मूला है पूरे संतमत और उसके सभी सिद्धांतों का। जिसे डिकोड किए बिना, किसी भी अभ्यासी का भजन में बैठ पाना और टिक पाना कतई संभव नहीं।
इस फार्मूले के तीन मुख्य भाग है।
पहला -सतगुरु के स्वरुप का ध्यान। क्या तुम कर पाते हो? अधिकांशता नहीं। तुम सिर्फ छवि का ध्यान करते हो। क्योंकि स्वरुप से तो तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ ।कोई विरला प्रेमी भक्त ही सतगुरु के स्वरुप को देख पाता है और वही उसका ध्यान कर पाता है ।तुम्हारी कार और ड्राइंग रूम की दीवारों पर सजी तस्वीरें इस बात का सबूत है कि तुम सिर्फ छवि के आगे पीछे ही डोलते रहते हो और अपने मन में अहम पाल बैठे हो कि तुम्हें सब कुछ मिल गया ।जबकि आत्मिक दृष्टि से कोरे के कोरे ही हो । तो जरूरी है कि पहले स्वरुप से परिचित हो लो , ध्यान तो बाद में आएगा ।बिना सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के जीव सतगुरु के स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकता। जगत का प्रेम सच्चा नहीं है, क्योंकि यह शारीरिक और मानसिक होता है।

सच्चा प्रेम पुत्र को वनवास की आज्ञा देकर दुखी नहीं होता बल्कि आशीर्वाद देता है कि पुत्र अपने समस्त कर्तव्य और दायित्व का पालन करना। सच्चा प्रेम किसी के उलाहना देने पर आहत होकर अपनी गर्भवती पत्नी को धोखे से हिंसक पशुओं का आहार बनने के लिए जंगल में नहीं छुड़वाता, यह त्याग नहीं बल्कि उदंडता पूर्ण घोर कायरता है और गर्भस्थ शिशु की हत्या का प्रयास या हत्या धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म हत्या ही मानी गई है ।

तो सच्चा प्रेम क्या है?
सच्चा प्रेम आत्मिक होता है , यह मानसिक विचार नहीं पर आत्मिक भाव होता है , यह मन में नहीं पर हृदय में प्रकट होता है , यह वाणी या कर्मों द्वारा योजना बनाकर नहीं बल्कि स्वभाव से व्यवहारिकता में प्रकट होता है ।

संत अपनी बानी से पहचाना जाता है ,बाने से नहीं । तो जब भी तुम्हारा भाग्य तुम्हे सतगुरु के सामने लायेगा, तुम्हारे हिर्दय के तार स्वतः ही बज उठेंगे । तुम्हारी आत्मा स्वतः ही ललक कर लपक पड़ेगी उनकी ओर ।तुम्हारा मन मस्तिष्क लाख रोकेग तुम्हें , तरह तरह के विचार उठाएगा , की क्यूं दीवाना हुआ पड़ा है ? ऐसा क्या है उसमे ? फिर भी ना रुके तो तरह-तरह की परिस्थितियां पैदा करेगा कि किसी तरह तुम्हारे कदम रुक जाए । तुम्हारे भीतर तुम्हारी सामर्थ और स्थिति का अहम ,जीवन की उन्नति के विचार और अपनों के प्रति मोह पैदा कर देगा और तुम अपने जीवन में उन्नति की चाह लिए लोभ, मोह और अहंकार की चादर मे लिपटे सतगुरु के सामने खड़े होगे, पर कुछ ना मिलेगा । हा, संत सदगुरु वक्त से तो ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा ,क्योंकि प्रेम तो तुम्हारे हृदय में उपजा ही नहीं तुम तो स्वार्थ और अहम के भांडे भरकर पहुंचे हो ।सत गुरु पूरे का होना, जगत और जीव के उद्धार के लिए होता है ना की जीवन की उन्नति के लिए, जब जीव का उधार होता है तब जगत का भी होता है और जीवन स्वतः ही उन्नती के शिखर पर होता है , न की भोगवादिता के ।

सतगुरु की ओर बढ़ने से पहले अपने हृदय को टटोलना जरूरी है । जीवन तो काल का क्षेत्र है, जो कि समय ,परिस्थिति व वातावरण और आयु से बंधा है। यह मुकत नहीं है और देह में तुम्हारा मन काल की ही नुमाइंदगी करता है अतः मन पर वश आवश्यक है । मन का मैल सतगुरु के सानिध्य में ही कटेगा। tv ,वीडियो या cd सुनकर नहीं ।सत गुरु शब्द स्वरुप है और उनका संग ही सच्चा सत्संग। इस सत्य के संग से जैसे जैसे तुम्हारे मन का मैल करता जाएगा वैसे वैसे बोझा भी हल्का होता जाएगा और हृदय में सतगुरु के प्रति सच्चा अमिट प्रेम भी पैदा होता और बढ़ता जाएगा। इस तरह एक दिन भक्ति पूर्ण होकर तुम अपने सतगुरु में एक हो जाओगे ।यही एक भक्त और सद्गुरु का एक रुप होना ही पूर्ण समर्पण है। इस तरह तुम सतगुरु के वास्तविक स्वरुप से परिचित हो जाते हो, जो वास्तव में तुम्हारे भीतर ही कहीं छुपा है । जरूरत है सिर्फ उस पर चढ़ी विकारों की मैल को उतारने की, जिस दिन यह उतर गई , तुम्हारे भीतर का शब्द स्वतः ही प्रकट हो जाएगा और अंतर प्रकाश से भर जाएगा ।अभी भेद सिर्फ इतना है कि तुम अचेत हो और सतगुरु सचेत ।
सतगुरु और पारस में बड़ो अंतरो जान
पारस लो कंचन करे .....
और सतगुरु कर ले आप ।
यही है स्वरूप का ध्यान, जो संत सतगुरु वक्त से सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के बिना सिर्फ एक धोखा ही है ।
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

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