Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा .....61
यह मै ही हूँ...
जो मुझे मालिक से मिलने नहीं देता .
कभी कभी मन विचार करता है की जब मालिक हर देह मे मौजूद है, तो फिर मुझे अपने भीतर नज़र क्यू नही आता ? भीतर ऐसी कौन सी रुकावट है ? और कैसे दूर हो सकती है ?
“एका संगती इकतु ग्रही बसते मिली बात न करते भाई .
अंतरी अलखु न जाई लखिया विची परदा हाउमें पाई ..”
..... अर्जुन देव जी .
मन और आत्मा दोनों ही इस देह रुपी घर मे इकट्ठे ही रहते है पर कभी आपस मे मिलना नही होता . और जब मिलना होगा वही क्षण मन के फिरने का होगा, तब जगत सुहाना न लगेगा. यही जीते जी जगत से मुक्ति का क्षण है.

“हरी जीउ सचा ऊँचो ऊँचा हाउमें मारी मिल्वनिया.”
..... अमर दास जी .
परमात्मा सच्चा और ऊँचे से ऊँचा है पर जब तक हम अपने भीतर से अहं की रुकावट को दूर न करेंगे, परमात्मा से हमारा मिलना न हो सकेगा.

“दादू दावा दूर का, बिन दावे दिन काट.
केते सौदा कर गये, पंसारी के हाट .. “
..... दादू साहेब .
हे दादू , दुनिया में किसी भी चीज़ का दावा न कर . इस दुनियां में तेरा कुछ भी नहीं. जो कुछ भी है उस परमात्मा का ही है. जगत के ये पदार्थ न कभी किसी के हुए हैं , न हो सकते हैं. यह हमारा मोह और अहं के बंधन ही हैं जो इनको अपना समझने को मजबूर कर देते हैं .

कबीर साहेब फरमाते हैं .....
“ काम तजे तो क्रोध न जाई , क्रोध तजे तो लोभा .
क्रोध तजे अहंकार न जाई , मान बढ़ाई सोभा .. “
जगत के पदार्थों के प्रति यह हमारा मोह ही है जो हमे बार-बार देह के बन्धनों में खीच लाता है और अहं भाव मैं डुबो देता है कि यह तेरा है, सब कुछ तेरा है और फिर काम, क्रोध, लोभ, वासनाएं आदि, धीरे-धीरे सभी विकारी दूत मिल कर जीव को भींच लेते हैं.
..... मन फिरे तो कैसे ?
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय .
जो मन खोजा आपना , मुझ से बुरा न कोय ..
कबीरा ..... मुझ से बुरा न कोय .

राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home