अंतर्यात्रा ....59
सिमरन नाम का .... इसमें दो बातें मुख्य हैँ।एक तो नाम और दूसरा सिमरन । पहले नाम से परिचित होना आवश्यक है, तभी तो सिमरन बन पड़ेगा। वरना तो वही रटते रहोगे जो तुम्हें रटाया जा रहा है। हाँ, मैं तुमसे स्पष्ट कह रहा हूं, राधा स्वामी नाम वर्णात्मक है धनात्मक नहीं और पांच नाम का जो उपदेश है , वह भी वर्णात्मक ही हैं, इनमें से कोई भी ध्वनात्मक नहीं है , क्योंकि इन सभी नामों को लिखा पढ़ा ,बोला और सुना जा सकता है । चैतन्य तो धुन है। चैतंय की धुन को ना तो इंद्रियों से सुना जा सकता है , न वाणी से उच्चारण किया जा सकता है और ना ही किसी वाध यंत्र द्वारा पैदा ही किया जा सकता है। यह तो अनंत निरंतर और अनामी है । जो हर जीव के अंतर में सवतः ही गूंज रही है और मात्र मनुष्य देह में ही वह द्वार और मार्ग है जो तुम्हारी देहिक चैतंयता को मानसिक चैतन्य फिर चैतन्य को अंतर चेतना से जोड़ सकता है। मालिक कुल तो शुद्ध चेत ही है और समस्त चेतना, इस परम चेत के होने से ही है। सतगुरु जो पूरा है, वह जीव को चेताना ही जगत में आता या भेजा या जगत के जीवो में से उठाया जाता है। चेताने का अर्थ यही है कि जीव की अंतर चेतना को,कुल मालिक अनामी के परमचेत से जोड़ने के मार्ग को लखाना, जतन को बताना और अधिकारी जीव को दया मेहर की सामर्थ से सत्य मार्ग पर आगे बढ़ाना। यही है सत्य मार्ग या संतमत । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है , वह मन के रंजन के सिवा कुछ नहीं। तो किस नाम से सिमरन करोगे तुम मालिक कुल अनामि का? तुम्हारे विचार जो कि वर्णात्मक होते हैं और मन में उठते हैं , तो तुम्हें मन को साधने और स्थिर करने के लिए वर्णात्मक नामों की जरूरत पड़ती है । जबकि अनामी की आराधना अंतर में भाव से की जाती है और अंतरयात्रा किसी भी भाषा या वर्णात्मक शब्द के आसरे नहीं होती, वह तो बस अंतर भाव से ही होती है और यह भाव मात्र मनुष्य देह में होकर ही होता है । चारों खानों की अन्य किसी भी देह में अंतर द्वार होता ही नहीं।सतगुरु पूरे इसी द्वार को खोलने आते हैं। तब ही कोई विरला चेतकर अधिकारी बन पाता है ।वरना तो पैदाइश के बाद सभी के भीतर मन की मैल की परतो के चलते चलते यह द्वार बंद हो ही जाता है। इस तरह पांच नाम की रटन उस अनामी तक पहुंचने के लिए, मन की, एक तरह से "वर्मा अप एक्सरसाइज" ही है । अनामि का भला क्या नाम ? तो" राधा स्वामी दयाल "उस अनामी की वर्णात्मक अभिव्यक्ति ही है। राधा आदी सूरत का नाम स्वामी शब्द निज धाम। सूरत शब्द और राधास्वामी, दोनों नाम एक कर जानी।। इससे स्पष्ट है कि "राधास्वामी "एक नाम है, अनामी नहीं । दरअसल "राधास्वामी" ऐक स्थिति का नाम है। वह स्थिति जब की राधा यानि सूरत, उस अनामी में ,जो कि सबका स्वामी , आदि चेत , स्वयं को चेतना रूप शब्द में प्रकट करता है- समा जाती है। यही चेतना आदि में सतलोक से धारा बनकर उतरी । जो की अति निर्मल होने से "धुन धार" के रुप में प्रकट हुई । यही धुन धार -आदि शब्द सत शब्द और सच्चा सत नाम है । जिसे बड़भागी कोई विरला ही अंतर में सुनता है । बाकी सभी ब्रह्माण्डीय शब्द है। जैसे जैसे इस अति निर्मल धारा में ब्रमांडीएमाया का मल मिलता गया, स्तर दर स्तर इसकी गूंज शब्द में और शब्द दढता में परिवर्तित होता चला गया। जिसे योग शास्त्रों में "नाध" कहा गया है । पंतजलि योग में दस प्रकार के नादों का वर्णन मिलता है और तुम्हें दसवें द्वार के पार जाना है। सभी नादो की ब्रह्माण्डीय इस्तर व चक्रों के अनुसार एक तय सीमा होती है उसके आगे पीछे नाद बदल जाता है । हम जिस भी वाणी, वर्ण या भाषा को प्रकट करते हैं उसके केंद्र में यही चेतना की धारा-" अनहद नाद" ही है। जो की विभिन्न आयामों, स्तरों, चक्रों व् तत्व आदि में लिपटी अंततः देह में प्रकट होती है। चेतना रूपी शब्द की इसी धारा को अपने भीतर खोजना और फिर इसी चैतन्य धार को , जिसका प्रवाह जगत की ओर हो रहा है , उसे उलटा कर उसके केंद्र और फिर मूल स्रोत की दिशा में बड़ाना ही "सूरत शब्द अभ्यास" या राधास्वामी मत के अनुसार अभ्यास है । मुख्य यही है कि यह चेतना की धारा के जोकि हर अंतर में स्वतः ही गाज रही है । जब उलट कर अपने मूल यानी स्वामी की दिशा में बढ़ती है तब यही "धारा "से "राधा" बन जाती है। और जब राधा-स्वामी से जा मिली, तब हो गई "राधास्वामी"। पुर प्रश्न अभी वही है कि अनामिका नाम क्या? और सिमरन किस नाम का ? तो अब कहता हूं और बड़े स्पष्ट रुप से कहता हूं कि -कुल मालिक अजात अनामि का नाम चेतना की गुजं ही है, जो कि हर अंतर में विद्यमान है । तो सिमरन भी इसी नाम का करना है। सिमरन का अर्थ, किसी विशेष वर्ण या वर्णात्मक शब्दों को दोहराना या रटना कतई नहीं है । सिमरन एक अपब्रह्नश है जिस का शुद्ध है "समरण" यानी याद करना। इस तरह हर अभयास को उचित है कि हर वक्त सतनाम यानी चेतना की धून धार को अंतर में याद रखे- लो हो गया सिमरन नाम का। जिसे हर वक्त याद करोगे उससे मिलने की तडप खुद ब खुद पैदा हो जाएगी, तो उसे खोजोगे भी। खोजोगे तो पाओगे भी और जब पा लिया तो हो गई राधा- स्वामी की। राधास्वामी जी । राधास्वामी हेरिटेज ( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित) |
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