अंतर्यात्रा ...60
.....और ध्यान नाम का इस अभ्यास को सूरत शब्द योग कहा गया है। मतलब यह कि सूरत आत्म तत्व को शब्द की धार के साथ जोड़कर उपरी मंडलों में चढ़ाना। ध्यान रहे कि हर आत्मा सूरत नहीं होती। सूरत का अर्थ है, शुभ में रत । तो जब जीव का आत्म तत्व यानी उसका चेता, चेत कर धुन धार को अंतर में सुनता है, तब यही स्थिति सूरत की है ।और शब्द का अर्थ किसी आवाज या ध्वनि से कतई नहीं है, बल्कि धुन धार से है ।क्योंकि जहां धार जारी और प्रकट है वहां उसके साथ ध्वनि भी होती ही है । धार तो नजर नहीं आती पर उसकी पहचान ध्वनि के होने से ही होती है । जैसे चैतन्य आत्मा हर इंसान में होकर भी नजर नहीं आती पर उसके बोलने से पता चलता है कि इंसान में चेतना है । इसी तरह कुल रचना में समस्त कार्रवाइयां चेतना की शब्द धार से ही हो रही है और चैतन्यता व्याप्त है। तो जहां शब्द गुप्त है वहां चैतन्य भी गुप्त ही है । इसी तरह यह ध्वनि अनहद नाद की, जो कि हर अंतर में गाज रही है और बिना मदद किसी जुबान या बाजे के हर वक्त निरंतर जारी है ,कुल मालिक दयाल के दरबार से जारी और आ रही है। यह धुन धार रास्ते के हर एक स्तर, मंडल और चक्रों में ठहर कर और फिर उस स्थान से जारी होकर कुछ बदलाव के साथ लगातार ऊपर से नीचे के मंडलों और हर एक स्तर पर जारी है। इस तरह कुल रचना और हर देह में व्याप्त है । जो कोई जिज्ञासू इस शब्द का भेद और पता यानी स्तर दर स्तर जारी शब्द का भेद किसी भेदी से जानकर और अपने पूरे मन और चित्त से इस नाद को सुनता हुआ आंखों के रास्ते से चलना शुरू करें वही धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन उस पद के जहां से की निचले मंडल का पहला शब्द जारी है उसके नजदीक पहुंचता जाएगा और वहां से दूसरे शब्द को पकड़कर चलेगा। इस तरह मार्ग की सभी मंजिलों को तय करता हुआ एक दिन कुल मालिक दयाल के देश में पहुंच जाएगा । मालिक कुल अरूप और विदेह है ।उसका ध्यान किसी भी तरह या तरीके से कोई भी नहीं कर सकता पर धुन धार की मदद से जो कि कुल मालिक के चरणों से जारी है और शब्द चैतन्य रुप में कुल रचना और देह में व्याप्त है । उसका ध्यान करते हुए अभ्यासी एक दिन चरणों में अवश्य पहुंच सकता है। शब्द चैतन्य ही मालिक कुल का प्रथम प्रकाटय है । जैसा कि मालिक कुल अरूप है सो शब्द भी अरूप ही है, पर ध्यान के अभ्यास में बहुत भारी मदद देता है यानि ध्याता को उसके इश्ट के चरणों में पहुंचा देता है। सतगुरु वक्त और पूरा जोकि नाम रूप और शब्द रूप है , इसीलिए सबसे पहले उसी के स्वरूप का ध्यान और ज्ञान आवश्यक है। तब ही जीव के भीतर का शब्द खुलता है । शब्द के बिना खुले तुम जिस रचना की कल्पना मात्र ही गढ़ते हो, सतगुरु पूरा उस समस्त रचना की वास्तविकता का रचनाकार और करतार है । जो इस बात में जरा भी संशय रखा तो तुम कभी भी सतगुरु पूरे के वास्तविक स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकते। इसके सिवा अन्य कोई भी रास्ता या तरीका इस कलयुग में इतना आसान निश्चित और सहज नहीं है । यह वह मार्ग है जिस पर एक 5 साल का बच्चा और 80 साल का बूङा भी समान रूप से सहज ही चल सकता है। क्योंकि चैतन्य धुन धार , जोकि अपने में आत्माओं का भंडार ही है , इससे बढ़कर अन्य कोई धार रची ही नहीं । यही धुन अन्य सभी धारो की करता और उन्हें चैतंयता प्रदान करने वाली है। प्राण की धार भी स्वयं आत्मा यानी जान की धार से ही चैतन्य है। इस तरह सूरत शब्द योग से बढ़कर ना तो कोई जुगत रची गई ,ना है और ना ही हो सकती है। यहां प्रश्न उठ सकता है कि, क्या कलयुग से पहले या संत मार्ग को प्रकट करने से पहले , अन्य पिछले युगों में जीव की मुक्ति नहीं होती थी? हां , नहीं होती थी और ना ही किसी की हुई । अब से पहले सभी योग्य जीव, मोक्ष पद को ही प्राप्त होते रहे, पर सच्ची और पूरी मुक्ति किसी की भी नहीं हुई "मुक्ति" और "मोक्ष" के अर्थों में एक भारी अंतर है। जिसे आगे कभी स्पष्ट करूँगा। परम पुरुष पुरन धनी राधास्वामी दयाल का अवतरण , समद हुज़ूर स्वामी जी महाराज ने फरमाया है कि "अबकी सब्दको ऐसे ही तारेंगे", परम पुरुष के कहने का अर्थ यह रहा और है कि कलयुग में और कोई करनी काम ना आएगी , केवल सतगुरु पूरे के स्वरुप का ध्यान, नाम का स्मरण और ध्यान नाम का ही एक मात्र जुगत है । मोक्ष की जुगत तुम से बन नहीं सकती सो कलजुग में रहकर जीव की मुक्ति की मात्र यही युक्ति है। जिसका की भेषी व्याख्याकार अपने ही मतलब को साधने के हित में, यह अर्थ समझा देते हैं कि , बस पर्चा भर कर हमसे नाम दान ले लो ,रजिस्ट्रेशन करवा लो , आई कार्ड बनवा लो, नाम रटो या न रटो -पर सतगुरु की सेवा में कमी ना करो , आयोजनों में आते रहो क्योंकि तुम्हारे लिए यही उचित है । अभ्यास या भजन में बैठने की कौन कहे ,सतगुरु तुम्हारे सर्व समर्थ हैं, तुम चाहे जगत में कुछ भी करो-" अब की सबको ऐसे ही तारेंगे"। जिस किसी को जगत से मुक्ति और मालिक कुल में मिलने का सच्चा शौक और पूरी लगन हो, वह कुछ अरसा बिना नागा रोज़ भजन यानि अभ्यास मे बैठे तो मालिक की मौज से सभी प्रमाण उसे अंतर में सवतः ही मिलने लगेंगे । यह करनी का मत है, विद्या ,बुद्धि या कोई चतुराई इसमें कहीं भी साथ ना दे सकेगी । बुद्धि का प्रयोग करने वाले तो अपनी विद्या के अहंकार में संतो के वचन में भी पक्षपात करते और अपनी बुद्धि से तौलते रहे और इस तरह कोरे के कोरे ही रहे । उन्हें मालिक का या उससे मिलने के रस्ते और जुगत का पता ना लगा, सिर्फ बातें ही बनाते रहे और बना रहे हैं। उन्हें यही लगता है कि एक वे ही है जो सब कुछ जानते हैं। पर हकीकत में असल भेद कुल मालिक और जीव यानी सूरत और शब्द की धार से बिल्कुल अनजान और अचेत हैं। सो जो सच्चे खोजी है और किसी मत विशेष में उनका बंधन नहीं है और ना ही अपनी विद्या और बुद्धि के पूरा होने का अहंकार ही है कि सब कुछ जान और समझ लिया है, वे ही जीव् राधास्वामी मत या संतमत के अनुसार सूरत शब्द योग अभ्यास के योग्य ठहर सकते हैं। - यही है सतगुरु के स्वरुप का ध्यान ,नाम का सिमरन और ध्यान नाम का। राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सदा सहाय । राधास्वामी जी राधास्वामी हैरिटेज (संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित) |
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home