Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... 62
एक मै और एक तू .....
दोनों मिले इस तरह, और जो तन मन मे हो रहा है, वो तो होना ही था .....
क्या मै कोई गीत गा रहा हूँ ?
नहीं, मैं तो भजन कर रहा हूँ. तन से चैतन्यता खिंच चुकी है और मन गगन पर चढ़ कर मगन है. तो यह मगन क्या कर रहा है ?
..... नाद सुन रहा है, अनहद . विशाल वट वृक्ष समा रहा है – अपने बीज में. देह से चैतन्यता गुप्त और मन चैतन्य लुप्त हो रहा है – आत्मचेतना की धार मे. वृक्ष अब सफ़र कर रहा है, अपने बीज की तहों में – उस मगज की ओर, जहां छिपी है चेतना इस वृक्ष रुपी देह की, जहां से फूटा था कल्ला कभी इस देह का.
पर क्यूँ ? क्यूँ कर रहा हूँ मैं यह यात्रा अपने अंतर की ?
..... क्यूँकी ख़ोज है मुझे अपनी, अपने वास्तविक स्वरुप की, मुझ अंश को अपने अंशी की. तो क्या मैं एक ‘आत्मा’ ही हूँ, ‘परमात्मा’ का अंश, जो खोज रहा है अपने अंशी परमात्मा को ? और पूरी हो गयी ‘यात्रा’....
जहां तक बात आत्मा की है, वह तो अंश परमात्मा का ही है.
कबीर साहब ने फरमाया है – “कहु कबीर इहु राम की अनसु .”
गोस्वामी तुलसी दास जी ने फरमाया –
“ईश्वर अंस जीव अबिनासी. चेतन अमल सहज सुख रासी..”
नानक देव ने भी यही कहा – “आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसी गुर बीचारा”
-आत्मा के अंदर परमात्मा है और परमात्मा के अंदर आत्मा है.
..... देह मे चैतन्यता व्याप्त है – मन के चैतन्य होने से, मन चैतन्य है – आत्मा की चेतना से और चेतना अंस है अपने अंसी परम चेतना का, जिसे तुम परमात्मा कहते हो. तो क्या यात्रा यहीं समाप्त हो गयी ? नहीं, ‘यात्रा’ तो यहीं से शुरू होती है. एक नवीन खोज के साथ, कि ‘चेतना’ कहां से आई ?
..... चेतना का स्रोत है ‘चेत’. – स्थूल देह व इन्द्रियों में ‘चैतन्यता’, सूश्म देह यानी मन व अंतःकरण में ‘चैतन्य’ और कारण देह यानि अंतर में ‘चेतना’ या कि आत्मा विधमान और व्याप्त है, जो कि परम चेतना परमात्मा यानी ब्रह्म – जो कि तीनो गुणों से न्यारा है, उसका अंस मात्र ही है. फिर शास्त्रों के अनुसार ‘ब्रह्म’ का भी तो जाग्रत और शैया काल होता है, सभी जीव-जंतु, देवी-देवता, भगवान्, ईश्वर-परमेश्वर सभी का होता है. इससे साबित होता है कि ‘परम आत्मा ब्रह्म’ भी काल खंड की उस व्यवस्था के अधीन ही है जिसे तुम महाकाल कहते हो और जाग्रत व सुप्त अवस्थाओं के कारण स्थिर नही है. ‘चेत’ तो महाकाल की परिधि से भी परे, अनंत के क्षेत्र में सदा एकरस स्थिर है.
हाँ, संत जगत में जीव को ‘चेताने’ ही आते हैं, क्यूँकी जगत में हर चेतना यानी आत्मा वास्तव में अचेत ही है – क्यूँकी वह ‘चेतना’ है – ‘चेत’ नहीं.
..... और संत वही जो चेते हैं.
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

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