Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा 55
तो चलें कुछ भीतर........
कहते हैं कि योग साधनाऔ से अपने भीतर अद्भुत क्षमता जगाई जा सकती है। चमत्कार, सिद्धि, मनुष्य से देवता बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। तो क्या है हमारे भीतर ? योगेश्वर कहते हैं अहम ब्रम्हास्मि, मालिक कहता है तुझ में भी मै हूँ और मन यानि जीव का अहम कहता है कि मैं ही सब कुछ हूं । कुल शास्त्रों का सार यही है कि बिना अपने भीतर झांके जीव सयंम से परिचित नहीं हो सकता। दिखाई देने वाली इस देह से हजारों लाख गुना अधिक सामर्थ छिपी है हमारे भीतर ना दिखाई पड़ने वाले शरीर में। जिसका कारण छुपा है उसके भी भीतर कारण शरीर में। बाहर दिखाई देने वाली स्थूल देह का केंद्र मस्तिक्ष होता है, ना दिखाई पड़ने वाली सूक्ष्म देह का केंद्र जीव का मन होता है और उसके भी भीतर कारण देह के केंद्र में जीव का चित होता है । संत जगत में जीव के इसी सोए हुए चित को जगाने आते हैं। चेताना ही संतों के लिए मालिक की आज्ञा , दैहिक उद्देश्य, मानसिक लक्ष्य , व्यहवारिक कर्त्तव्य और कार्मिक कर्म होता है ।
पिंड यानि जगत और देह मे, काल और माया का रचा हुआ यह जाल अति भरी है । जिसे बिना शब्द डोर को थामे , पार नहीं किया जा सकता । यह जाल , जीव की प्रकृति, प्रवति ,आशा, विश्वास और इच्छा के अनुसार तमाम तरह की तरंगे उत्पन्न करता रहता है। फिर यही तरंगे बुद्धि के माध्यम से मन के विचारों के साथ मिलकर व्यवहारिक रूप से जीव की वाणी और इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रुपों में प्रकट होती रहती हैं। जीव जगत में अचेत ही आता है और अधिकांश अचेत ही चला जाता है। जीवन भर भौतिक विकास को ही जीवन का लक्ष्य मानकर अपने ही भीतर के इस मकड़ जाल में उलझा कभी सुख कभी दुख के सागर में डूबता - उतराता रहता है। काल और माया इस जाल का ताना-बाना है इस प्रकार अचेत जीव कभी भी बुद्धि की सीमाओं को लाँघ ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाता जब तक कि सतगुरु वक्त उसे ना चेताये । जो कि सयंम चेत और शब्द स्वरुप है। हकीम लुकमान की तस्वीर टांग लेने से घर की बीमारी दूर ना होगी । भय और भ्रम जो कि काल के दो पंजे हैं वे जीव के जीवन को रात दिन माया के मोह में फंसा कर सुख-दुख के माध्यम से चूहों के समान लगातार कुतरते जाते हैं इस प्रकार जीव का ध्यान जगत की माया और उसके मोह में फंसा निरंतर बाहर ही भागता रहता है।भीतर तो कभी झांकता भी नहीं पर जीव जब चेत जाता है तब अचेतावस्था के सभी भर्मो, भय, आशंका, संशय ,सुख-दुःख, योजनाओं , जिज्ञासा और प्रश्नों का उत्तर स्वतः ही पा जाता है।

भर्मित और भयभीत जीव पिंजरे में कैद उस पंछी के समान है जिसने अपनी सीमाएं खुद ही तय कर ली है । जिसे वह अपना धर्म, संप्रदाय या पन्थ समझकर भेड़ों के झुंड में चल पड़ता है और उसका अपना कोई मत नहीं होता । तो वह कभी मुक्त भी नहीं होता। भौतिक सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाला कभी भी निर्मल आनंद की अनुभूति नहीं कर पाता। बौद्धिक लक्ष्य साधने वाला कभी भी ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाता । मोक्ष को ही अंतिम पद मानने वाला वास्तव में कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। धर्म, संप्रदाय और पंथो की सीमाओं से भीतर सुखी और संतुष्ट जीव कभी भी मुक्त आकाश में लीन होने कि अनुभूति से तृप्त नहीं हो सकता। सीमाओं को लांग कर जाने का भय और सीमाओं को ना लांग पाने का भ्रम उसे कभी भी निर्मल आनंद और ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करने देते । इस प्रकार अचेता जीव कभी भी अपने भीतर छिपी असीम संभावनाओं ,क्षमताओं और सामर्थ से परिचित नहीं हो पाता, अपरिचित ही रह जाता है- अपने ही ना दिखाई पड़ने वाले सूक्ष्म और उसके कारण रूपों से। परम पुरुष पूरन धनी हुजूर स्वामी जी महाराज ने बार-बार चेताया है कि सतगुरु पुरे को खोजो ,खोजो अपने सतगुरु वक्त को. ....
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

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