सुरत-शब्द-----6
तो जब एक अभ्यासी की चेतना तिल पर स्थिर होती है , तब तमाम देह की कोई खबर
नहीं रहती। मतलब यह कि चैतन्य की धार , देह व इन्द्रियों से सिमट कर तिल
पर स्थिर हो जाती है और भीतर की ओर , जिस मार्ग से कि वह देह में आयी थी ,
उसी मार्ग पर उलट कर आगे बढती है। इसी प्रक्रिया को अंतर्यात्रा या अपने
भीतर जाना कहा गया है। इस स्थिति में द्रष्टि भी भीतरकी ओर उलट कर आकाश को
देखती है और सहस दल कंवल पर जा टिकती
है।इस पद से प्रकाश हजारों पंखुणियों के समान हर दिशा में फैल रहा है। और
यही तीनों लोकों के मालिक कर्ता ब्रह्म का स्थान है। जो कि तीनों लोकों की
रचना को साध रहा है। संतमत में इस पद को ज्योत-निरंजन का स्थान कहा गया है ।
संतमत में अभ्यास की शुरूआत इसी पद से करवाई जाती है। इसी पद पर तन्मात्रा
यानी तत्वों का सूक्षम रूप , प्रकट हुयी और उससे स्थूल तत्व , इन्द्रियां ,
प्राण व प्रक्रति प्रकट हुए औरयही पद बहुत से दुनियांवी धर्मों व मजहबों
का धुर पद है।
शरीर विज्ञान की भाषा मे इसे Thalamus के नाम से जाना गया है। मस्तिष्क के इसी भाग में चैतन्य धार का प्रकाशमय शब्दस्वरूप प्रकट है। जिसकी छाया पहले तिल के स्थान पर फिर आंखों में हो कर समस्त देह में व्याप्त हो ही है।

सुरत-शब्द---6 का शेष....
शब्द की धार जो कि शुद्ध चेत है, जब वह ब्रह्म के स्तर पर प्रकट होती है , तब उसे ही चैतन्य कहा गया है। इसी चैतन्य की छाया जब तिल के स्थान पर पङती है, तब चेतना कहलाती है और दैहिक स्तर पर इसे ही चैतन्यता कहा गया है। शब्द-अभयासकी प्रक्रीया में पहले चैतन्यता , देह से सिमट कर चेतना में, फिर चेतना-चैतन्य में और चैतन्य-चेत में समाहित होता जाता है। इसे ही जीते जी मरना कहा गया है।
तो जब चेतना तिल के स्थान से आगे बढती है और Amygdala के स्तर पर पहुंच कर आकाश की ओर घूमती है , तब तमाम देह की खबर नहीं रहती और आँखों के डेले भी पलट जाते हैं। एक अभ्यासी को इस स्थिति का अनुभव , बिना सतगुरू या साधगुरू के सानिध्य के नहीं करना चाहिये । इस स्तर पर कुछ खतरे हो सकते हैं जिनका निवारण साधगुरू या सतगरू के सानिध्य व सहयोग से ही संभव हो पाता है , जिसे एक अभ्यासी ही समझ सकता है।
तो जब Amygdala के स्तर से द्रष्टि , आकाश की ओर घूमती है , तब अमयगदाला के स्तर पर एक बन्ध पङ जाता है , जो कि अमयगदाला के स्तर को बढने नहीं देता। इसी कारण एक अभ्यासरत व्यक्ति का चेतन मस्तिष्क क्रियाशील रहता है और वह आत्मिक अनुभवों को प्राप्त करता है। और जब भी उत्तेजना की स्थिति आती है तब एक प्रेमी सतसंगी उसे नियंत्रित कर पाता है, तो विकार भी प्रकट नहीं होते। यही एक सतसंगी के विकार रहित होने का भेद है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापन के प्रति समर्पित )
शरीर विज्ञान की भाषा मे इसे Thalamus के नाम से जाना गया है। मस्तिष्क के इसी भाग में चैतन्य धार का प्रकाशमय शब्दस्वरूप प्रकट है। जिसकी छाया पहले तिल के स्थान पर फिर आंखों में हो कर समस्त देह में व्याप्त हो ही है।


सुरत-शब्द---6 का शेष....
शब्द की धार जो कि शुद्ध चेत है, जब वह ब्रह्म के स्तर पर प्रकट होती है , तब उसे ही चैतन्य कहा गया है। इसी चैतन्य की छाया जब तिल के स्थान पर पङती है, तब चेतना कहलाती है और दैहिक स्तर पर इसे ही चैतन्यता कहा गया है। शब्द-अभयासकी प्रक्रीया में पहले चैतन्यता , देह से सिमट कर चेतना में, फिर चेतना-चैतन्य में और चैतन्य-चेत में समाहित होता जाता है। इसे ही जीते जी मरना कहा गया है।
तो जब चेतना तिल के स्थान से आगे बढती है और Amygdala के स्तर पर पहुंच कर आकाश की ओर घूमती है , तब तमाम देह की खबर नहीं रहती और आँखों के डेले भी पलट जाते हैं। एक अभ्यासी को इस स्थिति का अनुभव , बिना सतगुरू या साधगुरू के सानिध्य के नहीं करना चाहिये । इस स्तर पर कुछ खतरे हो सकते हैं जिनका निवारण साधगुरू या सतगरू के सानिध्य व सहयोग से ही संभव हो पाता है , जिसे एक अभ्यासी ही समझ सकता है।
तो जब Amygdala के स्तर से द्रष्टि , आकाश की ओर घूमती है , तब अमयगदाला के स्तर पर एक बन्ध पङ जाता है , जो कि अमयगदाला के स्तर को बढने नहीं देता। इसी कारण एक अभ्यासरत व्यक्ति का चेतन मस्तिष्क क्रियाशील रहता है और वह आत्मिक अनुभवों को प्राप्त करता है। और जब भी उत्तेजना की स्थिति आती है तब एक प्रेमी सतसंगी उसे नियंत्रित कर पाता है, तो विकार भी प्रकट नहीं होते। यही एक सतसंगी के विकार रहित होने का भेद है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापन के प्रति समर्पित )
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