Monday, 17 June 2013

सुरत-शब्द------9

सुरत जब बंक नाल से ऊपर उठ कर दूसरे आकाश में आगे बढती है, तब पद त्रकुटी पर पहुंचती है, जो कि त्रिकोण के समान है । यहां का प्रकाश करोणों चांद व सूरज के समान सुनहला व रूपहला है। इसे ही ब्रह्म , प्रणव व ओंकार पद के नाम से जाना गया है और यही योगेश्वरों का सिद्धान्त पद भी है। जिससे आगे का मार्ग उन्हें प्राण की धार के आसरे होने के कारण न मिला।
इस स्तर पर हर वक्त ओं-ओं का शब्द बादलों की गरज के समान होता रहता है।इस स्तर पर पहुंच कर सुरत एक प्रकार की विषेश चैतन्य सामर्थ का अनुभव करती है।
त्रकुटी या ब्रह्म पद से ही महा सूक्ष्म तीन गुण पाँच तत्व (तन्मात्रा) और ब्रह्र्माण्डीय शब्द ओं प्रकट हैं। इसी पद को चिदाकाश (चैतन्य आकाश ) भी कहा गया है और चैतन्य प्राण का स्रोत भी यही पद है , जिस कारण इसे प्राण पुरूष के नाम से भी जाना गया है।
इस स्तर पर तरह-तरह की कार्यवाहियां अनवरत चलती रहती हैं। कर्मों का लेखा , प्रारब्ध का खाता, योनि निर्धारण , प्रक्रति का निर्माण व आयु की सीमा आदि का यही कारखाना है। योग मार्ग इस स्तर पर आ कर समाप्त होता है, अतः योगेशवरों का ज्ञान भी इस स्तर पर पहुंच कर मौन हो रहा।
इस पद से आगे जो मार्ग जाता है वही शब्द मार्ग है। इस स्तर से आगे बढने पर,सुरत का स्वरूप अब एक जीवात्मां का नहीं पर आत्मा का है। शब्द खुलने लगता है पर भाव गौङ होने लगते हैं और सुरत चैतन्य की धार को अनुभव करने लगती है , साथ ही कुछ समय के लिये अभ्यास में , इस स्तर पर पहुंच कर , एक ठहाव आ जाता है और कुछ समय तक सुरत इसी पद के आनन्द में मगन रहती है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

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