जिज्ञासा..... 10
सहसदलकँवल कहने का क्या अर्थ है ... और बारह कँवल किन्हें कहते हैं, इनके नाम और स्थान क्या हैं .....
पहले बताए हुए उलवी(ऊपरी) और सिफली(नीचे के) पदों व चक्रों को ही कँवल भी कहा गया है। जिनकी गिनती की शुरूआत नीचे से की जाती है।
संतमत के अनुसार इनका विस्तार इस प्रकार है -
पहला - मूलाधार चक्र गुदा के स्थान पर, यह चार दल का कँवल है, इस कँवल पर गणेश का वास माना गया है। चूंकि पिछले वक्तों में योगी-योग का अभ्यास इसी चक्र से शुरू करते थे, तो योगियों की रीस में ग्रहस्थी भी हर काम की शुरूआत गणेश पूजा से करने लगे।
दूसरा - स्वाधिष्ठान चक्र इन्द्री के स्थान पर। यह छः दल का कँवल है। इस कँवल पर ब्रह्मा-सावित्री यानी पैदा करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
तीसरा - मणिपूर चक्र नाभि के स्थान पर। यह आठ दल का कँवल है। इस कँवल पर विष्णु यानी पालन करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
( इन तीन कँवलों - गुदा, इन्द्री और नाभि कँवल को फकीरों ने नासूत कहा है )
चौथा - अनाहत चक्र हृदय के स्थान पर। यह बारह दल का कँवल है। इस स्थान पर शिव-शक्ति ( प्राण दायिनी व संहारक शक्ति ) का वास माना गया है।
पांचवां - विशुद्धि चक्र कण्ठ के स्थान पर। यह सोलह दल का कँवल है। इस स्थान पर दुर्गा यानी इच्छा व प्राण शक्ति का वास माना गया है।
छठा - आज्ञा चक्र दौनों नेत्रों के मध्य, मस्तक में कुछ भीतर। इसे तीसरा तिल, तीसरा नेत्र, शिव नेत्र , श्याम सेत आदि नामों से भी जाना गया है। यह दो दल का कँवल है। इस कँवल पर सुरत यानी पवित्र आत्मा का वास है।
॰॰ शब्द मार्ग के अभ्यासी को अभ्यास की शुरूआत, इसी कँवल पर सुरत की धार को समेट कर करनी होती है। इस कँवल के साथ अंतःकरण की डोर बंधी होती है और अंतःकरण के साथ दसों ज्ञान व कर्म इन्द्रियों की डोर बंधी है। उपरो्क्त तीन कँवल यानी हृदय, कण्ठ व आज्ञा चक्र को फकीरों ने मलकूत कहा है। और यही तक सिफली यानी नीचे के स्थान या पदों की सीमा पूरी होती है।
सातवां - सहसदलकँवल यह आठ दल का कँवल जोत-निरंजन का पद है। इस कँवल से दो आवाजें आसमानी प्रतीत होती हैं यानी शब्द प्रगट होता है। जिसकी डोर थाम कर सुरत ऊपरी मण्डलों में बढती है। फकीरों ने इसे जबरूत कहा है।
आठवां - त्रिकुटी यह चार दल का कँवल है। यह त्रिकुटी संतों की है , योगियों की नहीं। यही ओंकार पद है जिसे हंसमुखी भी कहा गया है। फकीरों ने इसे ही लाहूत कहा है।
नवां - सुन्न पद या दसवां द्वार, यह एक दल का कँवल है। यही पार ब्रह्म, फकीरों ने इसे हाहूत कहा है। उलवी यानी आसमानी पदों की यही अंतिम सीमा है।
दसवां - महासुन्न (मैदान) इस पद पर चार शब्द व पांच स्थान गुप्त हैं - जिसका भेद कभी किसी ने नहीं खोला, क्यों नहीं खोला .... यह भी नहीं खोला जा सकता ऐसा भौतिक जीव के हित में कतई नहीं, अभ्यासी जो इस पद पर पहुंचता है वही जानता है। यहां से दयाल देश की हद शुरू होती है।
ग्यारहवां - भँवरगुफा , यह सोहं पुरूष का पद है। फकीरों ने इसे हूतलहूत कहा है।
बारहवां - सत्तलोक यह सत्तपुरूष का पद है। फकीरों ने इस पद को हूत कहा है। इस पद के ऊपर तन पद और हैं। परमपुरूष पूरनधनी हुजूर राधास्वामी दयाल के नर देह धारन करने से पहले संतों ने इन पदों को प्रगट रूप से वर्णन नहीं किया, पर दयाल ने हुजूर स्वामी जी महाराज के रूप में आ कर , हर गुप्त को खुल कर सस्पष्ट रूप से प्रगट किया। जिसे जगत् ने संतमत राधास्वामी के नाम से जाना।
राधास्वामी जी
रधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )
सहसदलकँवल कहने का क्या अर्थ है ... और बारह कँवल किन्हें कहते हैं, इनके नाम और स्थान क्या हैं .....
पहले बताए हुए उलवी(ऊपरी) और सिफली(नीचे के) पदों व चक्रों को ही कँवल भी कहा गया है। जिनकी गिनती की शुरूआत नीचे से की जाती है।
संतमत के अनुसार इनका विस्तार इस प्रकार है -
पहला - मूलाधार चक्र गुदा के स्थान पर, यह चार दल का कँवल है, इस कँवल पर गणेश का वास माना गया है। चूंकि पिछले वक्तों में योगी-योग का अभ्यास इसी चक्र से शुरू करते थे, तो योगियों की रीस में ग्रहस्थी भी हर काम की शुरूआत गणेश पूजा से करने लगे।
दूसरा - स्वाधिष्ठान चक्र इन्द्री के स्थान पर। यह छः दल का कँवल है। इस कँवल पर ब्रह्मा-सावित्री यानी पैदा करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
तीसरा - मणिपूर चक्र नाभि के स्थान पर। यह आठ दल का कँवल है। इस कँवल पर विष्णु यानी पालन करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
( इन तीन कँवलों - गुदा, इन्द्री और नाभि कँवल को फकीरों ने नासूत कहा है )
चौथा - अनाहत चक्र हृदय के स्थान पर। यह बारह दल का कँवल है। इस स्थान पर शिव-शक्ति ( प्राण दायिनी व संहारक शक्ति ) का वास माना गया है।
पांचवां - विशुद्धि चक्र कण्ठ के स्थान पर। यह सोलह दल का कँवल है। इस स्थान पर दुर्गा यानी इच्छा व प्राण शक्ति का वास माना गया है।
छठा - आज्ञा चक्र दौनों नेत्रों के मध्य, मस्तक में कुछ भीतर। इसे तीसरा तिल, तीसरा नेत्र, शिव नेत्र , श्याम सेत आदि नामों से भी जाना गया है। यह दो दल का कँवल है। इस कँवल पर सुरत यानी पवित्र आत्मा का वास है।
॰॰ शब्द मार्ग के अभ्यासी को अभ्यास की शुरूआत, इसी कँवल पर सुरत की धार को समेट कर करनी होती है। इस कँवल के साथ अंतःकरण की डोर बंधी होती है और अंतःकरण के साथ दसों ज्ञान व कर्म इन्द्रियों की डोर बंधी है। उपरो्क्त तीन कँवल यानी हृदय, कण्ठ व आज्ञा चक्र को फकीरों ने मलकूत कहा है। और यही तक सिफली यानी नीचे के स्थान या पदों की सीमा पूरी होती है।
सातवां - सहसदलकँवल यह आठ दल का कँवल जोत-निरंजन का पद है। इस कँवल से दो आवाजें आसमानी प्रतीत होती हैं यानी शब्द प्रगट होता है। जिसकी डोर थाम कर सुरत ऊपरी मण्डलों में बढती है। फकीरों ने इसे जबरूत कहा है।
आठवां - त्रिकुटी यह चार दल का कँवल है। यह त्रिकुटी संतों की है , योगियों की नहीं। यही ओंकार पद है जिसे हंसमुखी भी कहा गया है। फकीरों ने इसे ही लाहूत कहा है।
नवां - सुन्न पद या दसवां द्वार, यह एक दल का कँवल है। यही पार ब्रह्म, फकीरों ने इसे हाहूत कहा है। उलवी यानी आसमानी पदों की यही अंतिम सीमा है।
दसवां - महासुन्न (मैदान) इस पद पर चार शब्द व पांच स्थान गुप्त हैं - जिसका भेद कभी किसी ने नहीं खोला, क्यों नहीं खोला .... यह भी नहीं खोला जा सकता ऐसा भौतिक जीव के हित में कतई नहीं, अभ्यासी जो इस पद पर पहुंचता है वही जानता है। यहां से दयाल देश की हद शुरू होती है।
ग्यारहवां - भँवरगुफा , यह सोहं पुरूष का पद है। फकीरों ने इसे हूतलहूत कहा है।
बारहवां - सत्तलोक यह सत्तपुरूष का पद है। फकीरों ने इस पद को हूत कहा है। इस पद के ऊपर तन पद और हैं। परमपुरूष पूरनधनी हुजूर राधास्वामी दयाल के नर देह धारन करने से पहले संतों ने इन पदों को प्रगट रूप से वर्णन नहीं किया, पर दयाल ने हुजूर स्वामी जी महाराज के रूप में आ कर , हर गुप्त को खुल कर सस्पष्ट रूप से प्रगट किया। जिसे जगत् ने संतमत राधास्वामी के नाम से जाना।
राधास्वामी जी
रधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )
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