सुरत-शब्द-----13 .
महा प्रकाशवान और महापवित्र सत्यलोक है। इस स्तर पर निर्मल और निर्मल चैतन्य ही चैतन्य है। यही, नीचे की समस्त रचना का आदि और अन्त भी है। शब्द का प्रकाट्य इसी पद पर हुआ है , यही अनहद और महानाद और सत्यनाम भी यही है। यह राधास्वामी पद से दो पद नीचे का पद है।
राधास्वामी नाम जो गावे सोई तरे ।
काल क्लेश सब नाश , सुखः पावे सब दुखः हरे।।
सुरत जब इस स्तर पर पहुंचती है , तब बीन में से निकलते सत्-सत् शब्द को सुनती है। इस शब्द में इतना खिंचाव है कि सुरत इस शब्द से बंधी और खिंची चली जाती है। इस लोक में प्रकाश की सीमांए नहीं हैं , मात्र प्रकाश ही प्रकाश है और इसके घेरे को भी नाप पाना सहज नहीं। असंख्य सुरतें यहां की वासी जिन्हें हँस कहा गया है, सत्यपुरूष की महिमा और सानिध्य में विलास करती हैं और अमी ( अम्रत का सार ) का आहार करती हैं। इस प्रकार सत्यपुरूष के दर्शन पा कर सुरत निहाल होती है और आज्ञा पा कर आगे बढती है।
जो इस पद तक पहुंचा वही संत और देह में सतगुरू है , अन्य किसी को संत या सतगुरू कहलाने का हक नहीं , फिर भी जो ऐसा करता है वह दयाल का चोर है और नहीं जानता कि उसकी गति उसे कहां ले जाएगी।
सत्यपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत आगे बढती और अलखलोक में पहुंचती है। अलखपुरूष और लोक की महिमा , सत्यलोक से करोङो अरब गुना अधिक है।
फिर अलखपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत अगमलोक में प्रवेश करती है, जिसकी महिमा और पुरूष का नूर - अलख पद से अरबों खरब गुना अधिक है। इस लोक के वासी हँसों का रूप अदभुत और हर उपमा से रहित है। बहुत लम्बे अरसे तक सुरत का यहां ठहराव है और तब अगमपुरूष की आज्ञा से अनामीपुरूष - परमपुरूष पूरनधनी राधास्वामी दयाल का दर्शन होता है।
यहां तो शब्द भी मौन है , अनन्त , असीम , अनामी यही परम संतो का बिलकुल निजी है , जिसमें समां कर सुरत अनन्त , असीम और अनामी हो जाती है। यहां कोई द्वै नहीं बस स्वामी ही है। इस प्रकार राधा - स्वामी में समा जाती है और राधास्वामी हो जाती है।
एक ओंकार सतनाम अनामी ।
राधास्वामी राधास्वामी ।।
राधा आदि सुरत का नाम , स्वामी शब्द निज धाम ।
सुरतशब्द और राधास्वामी दौनों नाम एक कर जानी।।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )
राधास्वामी नाम जो गावे सोई तरे ।
काल क्लेश सब नाश , सुखः पावे सब दुखः हरे।।
सुरत जब इस स्तर पर पहुंचती है , तब बीन में से निकलते सत्-सत् शब्द को सुनती है। इस शब्द में इतना खिंचाव है कि सुरत इस शब्द से बंधी और खिंची चली जाती है। इस लोक में प्रकाश की सीमांए नहीं हैं , मात्र प्रकाश ही प्रकाश है और इसके घेरे को भी नाप पाना सहज नहीं। असंख्य सुरतें यहां की वासी जिन्हें हँस कहा गया है, सत्यपुरूष की महिमा और सानिध्य में विलास करती हैं और अमी ( अम्रत का सार ) का आहार करती हैं। इस प्रकार सत्यपुरूष के दर्शन पा कर सुरत निहाल होती है और आज्ञा पा कर आगे बढती है।
जो इस पद तक पहुंचा वही संत और देह में सतगुरू है , अन्य किसी को संत या सतगुरू कहलाने का हक नहीं , फिर भी जो ऐसा करता है वह दयाल का चोर है और नहीं जानता कि उसकी गति उसे कहां ले जाएगी।
सत्यपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत आगे बढती और अलखलोक में पहुंचती है। अलखपुरूष और लोक की महिमा , सत्यलोक से करोङो अरब गुना अधिक है।
फिर अलखपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत अगमलोक में प्रवेश करती है, जिसकी महिमा और पुरूष का नूर - अलख पद से अरबों खरब गुना अधिक है। इस लोक के वासी हँसों का रूप अदभुत और हर उपमा से रहित है। बहुत लम्बे अरसे तक सुरत का यहां ठहराव है और तब अगमपुरूष की आज्ञा से अनामीपुरूष - परमपुरूष पूरनधनी राधास्वामी दयाल का दर्शन होता है।
यहां तो शब्द भी मौन है , अनन्त , असीम , अनामी यही परम संतो का बिलकुल निजी है , जिसमें समां कर सुरत अनन्त , असीम और अनामी हो जाती है। यहां कोई द्वै नहीं बस स्वामी ही है। इस प्रकार राधा - स्वामी में समा जाती है और राधास्वामी हो जाती है।
एक ओंकार सतनाम अनामी ।
राधास्वामी राधास्वामी ।।
राधा आदि सुरत का नाम , स्वामी शब्द निज धाम ।
सुरतशब्द और राधास्वामी दौनों नाम एक कर जानी।।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )
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