अंतर्यात्रा .......
एक प्रयास है गूढ़ता
को सरलता से समझने और समझाने का. पाता हूँ कि, जीव तो जिज्ञासु है, पाना भी चाहता
है, उपलब्द्ध भी है पर उस रूप में नही, उस भाषा और शैली मै नही, जिसे आज के समय की
पीढ़ी समझ सके, तब भला आत्मसात कैसे कर पायगी ? तो पाता हूँ कि अधिकतर बच्चे संतमत
को एक टैग की तरह इस्तेमाल कर रहे है, एक फैशन सा बनता जा रहा है, लोग एक-दूसरे की
देखा-देखी दौड़े जा रहे है और भीढ़ बढ़ती ही जा रही है.
तो जरा ठहरो ...,
रुको . और पूछो अपने भीतर जा कर, खुद से, कि तुम्हे आखिर चाहिए क्या ? किसे ख़ोज
रहे हो तुम और किसे पाना चाहते हो ?
जीव को काल के भारी
जाल में फसा, भ्रमित और भयभीत पाया, जो यह भी नही जानता कि आखिर उसका भय और भ्रम
है क्या ?
हालात देखता हूँ कि
छह दिन तो काल और माया के न जाने किन-किन रूपों के आगे माथे पटकता है और सातवे दिन
सत्संग दौड़ा चला जाता है, पर हालात है कि जस के तस.
क्यों नही आ पाता वह
बदलाव जो बाक़ी के छह दिन भी टिका रह सके ? पाया कि कुछ कहने की कमी , कुछ सुनने की
और फिर कुछ समझने की.
“ अंतर्यात्रा ” लेख
माला बस एक प्रयास मात्र है, कुछ कहने का, कुछ सुनने का और कुछ-कुछ समझने का.
मालिक की दया मेहर नादान के इस प्रयास को पूरा करे. जो मालिक की मौज से संतमत
विश्वविद्यालय के रूप में सामने आने को द्ढ़संकल्पित है.
राधास्वामी सदा सहाय
..... राधास्वामी जी .
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