जिज्ञासा ...... 29
क्या संतमत में भी अन्य मतों के समान ग्रंथों व पोथियों में लिखी बातों को बतौर प्रमाण माना जाता है ..........
संतमत की रीत है कि जिज्ञासु , जो भी बातें सतसंग व उपदेश में बताई जाती हैं और मत की पोथियो में पढी जाती हैं , उन्हें अपनी आँखों से और तीनों देहों व अंतर में , अपनी बुद्धि व अंतर द्रष्टि से देख कर खुद ही इस अटल सिद्धांत को समझ जाता है कि कानून कुदरत का या विधि का विधान हर जगह और हर स्तर पर एक सा ही है और इसमें बाल बराबर भी तबदीली नही हो सकती।
फिर चाहे खोजी जिस भी मत की किताब या पोथी से जो कि सच्चे साध या अभ्यासी की लिखी हुई है, मिलान कर के देख ले, सब बातों का मेल हो जाएगा, पर संतमत का सिद्धांत अन्य सभी मतों जुदा ही मिलेगा।
क्योंकि उन सभी ने वही लिखा और बताया जहां तक या जिस स्तर तक वे पहुंचे और उसी स्तर को उन्होंने कुल का मालिक व कर्ता मान कर नये-नये मत व सिद्धांत गढ दिये। तो ऐसे अधूरे खुद भी मार्ग में अटके और अनुयाइयों को कभी मार्ग पूरा न मिला तब भला मंजिल कैसे पाते.....
संतों ने जो कुछ भ कहा है, अंतर में कुदरत का भेद कहा है और यह भेद हर स्तर पर समान है।.बुद्धिमानों के मत दुनियादारी की बातों और वर्तमान भौतिक व्यवस्था के अनुसार होते आए हैं और हैं। गगहराई से देखा जाए तो इन बुद्धिमतों में रूह और रूहानियत का कुछ भी जिक्र नहीं मिलता।
संत अपने वचनों में किसी पुरानी बानी या गुजरे वक्त के लोगों के वचन का प्रमाण देना मंजूर नहीं फरमाते क्योंकि ऐसा यकीन कच्चा होता है, उसका एतबार नहीं और ऐसे उदाहरणों से समझने वालों की समझ भी नहीं बढती, खद का अनुभव कुछ भी नहीं होता बल्कि औरों के वचनों के आसरे निष्कर्मण्य पड़े रहते हैं। - इसी को टेक कहते है। और ऐसी टेक संतों को सख्त नापसंद है, क्योंकि टेकी जीव का वास्तव में कुछ भी फायदा नहीं पर असल में नुकसान ही नुकसान होता है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्ववविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
क्या संतमत में भी अन्य मतों के समान ग्रंथों व पोथियों में लिखी बातों को बतौर प्रमाण माना जाता है ..........
संतमत की रीत है कि जिज्ञासु , जो भी बातें सतसंग व उपदेश में बताई जाती हैं और मत की पोथियो में पढी जाती हैं , उन्हें अपनी आँखों से और तीनों देहों व अंतर में , अपनी बुद्धि व अंतर द्रष्टि से देख कर खुद ही इस अटल सिद्धांत को समझ जाता है कि कानून कुदरत का या विधि का विधान हर जगह और हर स्तर पर एक सा ही है और इसमें बाल बराबर भी तबदीली नही हो सकती।
फिर चाहे खोजी जिस भी मत की किताब या पोथी से जो कि सच्चे साध या अभ्यासी की लिखी हुई है, मिलान कर के देख ले, सब बातों का मेल हो जाएगा, पर संतमत का सिद्धांत अन्य सभी मतों जुदा ही मिलेगा।
क्योंकि उन सभी ने वही लिखा और बताया जहां तक या जिस स्तर तक वे पहुंचे और उसी स्तर को उन्होंने कुल का मालिक व कर्ता मान कर नये-नये मत व सिद्धांत गढ दिये। तो ऐसे अधूरे खुद भी मार्ग में अटके और अनुयाइयों को कभी मार्ग पूरा न मिला तब भला मंजिल कैसे पाते.....
संतों ने जो कुछ भ कहा है, अंतर में कुदरत का भेद कहा है और यह भेद हर स्तर पर समान है।.बुद्धिमानों के मत दुनियादारी की बातों और वर्तमान भौतिक व्यवस्था के अनुसार होते आए हैं और हैं। गगहराई से देखा जाए तो इन बुद्धिमतों में रूह और रूहानियत का कुछ भी जिक्र नहीं मिलता।
संत अपने वचनों में किसी पुरानी बानी या गुजरे वक्त के लोगों के वचन का प्रमाण देना मंजूर नहीं फरमाते क्योंकि ऐसा यकीन कच्चा होता है, उसका एतबार नहीं और ऐसे उदाहरणों से समझने वालों की समझ भी नहीं बढती, खद का अनुभव कुछ भी नहीं होता बल्कि औरों के वचनों के आसरे निष्कर्मण्य पड़े रहते हैं। - इसी को टेक कहते है। और ऐसी टेक संतों को सख्त नापसंद है, क्योंकि टेकी जीव का वास्तव में कुछ भी फायदा नहीं पर असल में नुकसान ही नुकसान होता है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्ववविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home