Sunday, 29 June 2014

जिज्ञासा ........ 31

सतसंगी होने का क्या अर्थ है......

वे  सभी मनुष्य जिन्होंने सतगुरू वक्त से उपदेश लिया है और सुरत-शब्द योग व मार्ग का अ्भ्यास करते हैं, फिर चाहें साधु  हों या ग्रहस्थ, स्त्री हो या पुरूष,  ये सभी सतसंगी कहलाते हैं।
   
राधास्वामी जी


जिज्ञासा ........ 32

एक साधु और एक ग्रहस्थ सतसंगी की आत्मिक बढत में क्या कोई फर्क होता  है......

संतमत में वयवहारिक त्याग या ग्रहण करना  बहुत  ही तुच्छ और निम्न
स्तर की बात मानी जाती है। फिर भी - जिसके जितने भी बन्धन संसारी  कम हैं ,  उसे उतना ही अधिक अवसर अभ्यास व उसके रस की प्राप्ति का मिलता है और इस लिहाज से साधुओं की बढत अधिक ठहरती है।

पर वास्तव में त्याग व ग्रहण  का  सम्बंध जीव के मन से है। जो मन से संसारिक्ता का त्यागी है उसका स्तर बहुतों से बढ कर है और वह संतमत को बहुतों  से जल्दी समझ कर उसका पूरा लाभ प्राप्त कर सकता है,फिर चाहे वह ग्रहस्थ हो या विरक्त। पर यदि मन में मालिक के चरणों के प्रति प्रेम नहीं है तो कपड़े रंग कर, सर मुंडवा कर और  घर-द्वार,पत्नि व संतान आदि से विमुख होने से संतों की द्रष्टि में ऐसा मनुष्य नीच ही ठहरता है। ऐसे भेषी साधुओं और संसारी जीवों का स्तर एक ही है।

बल्कि इस दौर ए वक्त में  राधास्वामी दयाल किसी भी जीव से उसकी ग्रहस्थी व ऱोजगार नहीं छुड़ाते हैं और फरमाते हैं कि ग्रहस्थ में रह कर भी यदि परमार्थ का शौक पक्का और दयाल के चरणों में प्रेम  सच्चा है तो भजन अधिक सहजता से और पूर्ण रस के साथ हो सकेगा।
   
राधास्वामी जी
राघास्वामी  हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

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