जिज्ञासा ............. 30
सतसंग किसे कहते हैं .....
सत संग दो तरह से होता है, अंतरमुखी और बाहरमुखी।
मालिक से मिलना यानी भजन में बैठ कर अंतर में शब्द-गुरू का संग-साथ और उसमें रस का मिलना, यही अंतरी सत संग सच्चा है।
और सतगुरू वक्त के दर्शन करना , उनके वचनों को पूरे ध्यान से सुनना और उन्हें व्यवहारिक्ता में अपनाना और सतगुरू की आज्ञा से जहां संतों की बानी का पाठ , अर्थ या परमार्थी चर्चा होती हो वहां जाना - ये बाहरमुखी सत संग है।
साथ ही यह जानना जरूरी है कि संतों की बानी व वचन में सच्चे कुल मालिक राधास्वामी दयाल की महिमा और सुरत-शब्द मार्ग के अभ्यास की चर्चा व अभ्यासी के उन हालात का वर्णन, जो कि अभ्यास की द्रढता व बढत के साथ-साथ दिन प्रति दिन बदलते जाते हैं। और सतगुरू दयाल के चरणों में प्रेम व प्रीत का बढना और हाल मन व इन्द्रियों के विकारों और उन्हे दूर करने के जतन का वर्णन किया जाता है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्ववविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
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