अंतर्यात्रा ..... २२
जोत निरंजन करते रलियाँ, यार बड़ा शातिर है ....
“यार शातिर न बार ख़ातिर” .
मालिक का सेवक, जो सतगुरु की सेवा में तत्पर है, अपना तन-मन सतगुरु की सेवा में लगाता है और इसी में उसे सच्ची ख़ुशी हासिल होती है. खुद अपने अहं का अहसास और मन को खुश करने का प्रयास उसकी चेष्टाओं में नहीं होता है, वही यार शातिर है. पर जो अपने किसी मतलब से या यूँही मनोरंजन के लिए सेवा करता है, वही बार ख़ातिर है.
“धाम अपने चलो भाई, पराए देश क्यों रहना.
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फंसना.”
जो काम, सुरत को सांसारिक बन्धनों से दूर कर के जीव को निज देश में ले जाए, वही काम अपना है. और जो काम जगत के बन्धनों में फसाए, वह काम अपना नहीं है. मन तो अड़ियल घोड़े के समान होता है, उसे तो काबू में लाना ही होगा. अनाड़ी बैठा तो गिरेगा ही. पर जब शह सवार की रान के तले आता है तब एक ही ऐड़ में सध जाता है. पहले तो सख्ती से ही काम लेना पड़ता है पर जब मन समझ जाता है की यह सुरत राधास्वामी दयाल की मेहर में है और मेरे बस की नहीं, तब मीत बन कर साथ निभाने लगता है.
मन के साथ सख्ती का यह मतलब बिलकुल नहीं कि उसकी कोई बात ही न मानी जाय, ऐसा करने से मन निष्क्रिय हो जाता है. अभ्यास में मन को साथ ले कर चलना होता है. ब्रह्मांडीय मन यानि ब्रह्म पद तक तो मन को साथ ही ले कर चलना है, बगैर मन के इस पद तक रसाई नहीं हो सकती. इसलिए कुछ हद तक मन की जायज़ चाहतों को पूरा करने में कोई हर्ज़ नहीं है. पर जिस काम से अपने स्वार्थ को पूरा करने में दूसरों का नुकसान होता हो, वही पाप कर्म है. दसवें द्वार या सुन्न पद पर पहुँच कर सुरत मन से न्यारी हो जाती है.
आँखों में काल और माया की धारे आ रही हैं, बाएँ अंग में माया की धर प्रबल है और दाएं अंग में काल की. ब्रह्मांड की हद के ऊपर दोनों धारे एक तिल में हो कर गई हैं, जहाँ वे आपस में रली-मिली हुई हैं. “जोत निरंजन करते रलियाँ” .
पर इसके ऊपर फिर अलग-अलग दिखाई देतीं हैं. इसी तरह दोनों धारे पहले हर मंडल की हद पर, मिल कर आती हैं, अपना काम करती हैं और फिर अलग-अलग हो जाती हैं.
सतगुरु के देह स्वरुप के दर्शन, जो की उनहोंने जगत में धारण किया है, दोनों आँखों से बड़े गौर से पूरा ध्यान लगा कर करना चाहिए और सतगुरु की आँखों में आँखें डाल कर शब्द के देहिक स्वरुप का आनंद लेना चाहिए. आप जानते हो कि, जाग्रत अवस्था में सुरत की धार की बैठक आँखों में ही होती है, हांलाकि सतगुरु कभी सोते नहीं पर जब वे खुली आँखों के साथ दर्शन देते है, तब अपनी दया-द्रष्टि से जगत को निहाल ही कर रहे होते है.
“संत का घूरो द्रष्टि माथा, सत्य नूर का जहाँ हर पल वासा.”
नासमझ हैं वे जो संतों के सामने होने पर भी आँखें बंद कर के शीश झुका लेते है, उन पर तो पूरी दया-द्रष्टि ही नहीं पड़ पाती और वे अभागे अपने ही कर्मों से, वंचित रह जाते है, यह भी काल का ही खेल ही है जी. पर इस पिंड देश के मुकाबले, सतगुरु का जो सूक्ष्म रूप, चिदाकाश में, अति विशाल और चैतन्य है यानि नूरानी और रूहानी है, उसका दर्शन जब तक दोनों आँखों की धारें तीसरे तिल पर मिल कर एक न होंगी, नहीं होगा. यह कोई सहज भी नहीं है, पूरा जनम भी लग जाता है. पर जब मालिक की दया-द्रष्टि होती है तब जन्मों का काज पल-छिन में हो जाता है. तो अब से “शब्द स्वरुप” के दैहिक दर्शन, दोनों आँखिन खोल कर और द्रष्टि से द्रष्टि मिला कर ही करना. मालिक अपनी दया से हर कारज सुफल बनायेंगे .
मनुष्य चोला मिलना और फिर उसमे संत समागम होना और सतगुरु का सत्संग मिलना बड़े भाग की बात है. ऐसे शुभ अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए जीव को अंतर में “नाम” का दिया जला कर घट में व्याप्त अँधेरे को झट से दूर कर लेना चाहिए. यही भक्तों की सच्ची दिवाली है जी.......
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
जोत निरंजन करते रलियाँ, यार बड़ा शातिर है ....
“यार शातिर न बार ख़ातिर” .
मालिक का सेवक, जो सतगुरु की सेवा में तत्पर है, अपना तन-मन सतगुरु की सेवा में लगाता है और इसी में उसे सच्ची ख़ुशी हासिल होती है. खुद अपने अहं का अहसास और मन को खुश करने का प्रयास उसकी चेष्टाओं में नहीं होता है, वही यार शातिर है. पर जो अपने किसी मतलब से या यूँही मनोरंजन के लिए सेवा करता है, वही बार ख़ातिर है.
“धाम अपने चलो भाई, पराए देश क्यों रहना.
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फंसना.”
जो काम, सुरत को सांसारिक बन्धनों से दूर कर के जीव को निज देश में ले जाए, वही काम अपना है. और जो काम जगत के बन्धनों में फसाए, वह काम अपना नहीं है. मन तो अड़ियल घोड़े के समान होता है, उसे तो काबू में लाना ही होगा. अनाड़ी बैठा तो गिरेगा ही. पर जब शह सवार की रान के तले आता है तब एक ही ऐड़ में सध जाता है. पहले तो सख्ती से ही काम लेना पड़ता है पर जब मन समझ जाता है की यह सुरत राधास्वामी दयाल की मेहर में है और मेरे बस की नहीं, तब मीत बन कर साथ निभाने लगता है.
मन के साथ सख्ती का यह मतलब बिलकुल नहीं कि उसकी कोई बात ही न मानी जाय, ऐसा करने से मन निष्क्रिय हो जाता है. अभ्यास में मन को साथ ले कर चलना होता है. ब्रह्मांडीय मन यानि ब्रह्म पद तक तो मन को साथ ही ले कर चलना है, बगैर मन के इस पद तक रसाई नहीं हो सकती. इसलिए कुछ हद तक मन की जायज़ चाहतों को पूरा करने में कोई हर्ज़ नहीं है. पर जिस काम से अपने स्वार्थ को पूरा करने में दूसरों का नुकसान होता हो, वही पाप कर्म है. दसवें द्वार या सुन्न पद पर पहुँच कर सुरत मन से न्यारी हो जाती है.
आँखों में काल और माया की धारे आ रही हैं, बाएँ अंग में माया की धर प्रबल है और दाएं अंग में काल की. ब्रह्मांड की हद के ऊपर दोनों धारे एक तिल में हो कर गई हैं, जहाँ वे आपस में रली-मिली हुई हैं. “जोत निरंजन करते रलियाँ” .
पर इसके ऊपर फिर अलग-अलग दिखाई देतीं हैं. इसी तरह दोनों धारे पहले हर मंडल की हद पर, मिल कर आती हैं, अपना काम करती हैं और फिर अलग-अलग हो जाती हैं.
सतगुरु के देह स्वरुप के दर्शन, जो की उनहोंने जगत में धारण किया है, दोनों आँखों से बड़े गौर से पूरा ध्यान लगा कर करना चाहिए और सतगुरु की आँखों में आँखें डाल कर शब्द के देहिक स्वरुप का आनंद लेना चाहिए. आप जानते हो कि, जाग्रत अवस्था में सुरत की धार की बैठक आँखों में ही होती है, हांलाकि सतगुरु कभी सोते नहीं पर जब वे खुली आँखों के साथ दर्शन देते है, तब अपनी दया-द्रष्टि से जगत को निहाल ही कर रहे होते है.
“संत का घूरो द्रष्टि माथा, सत्य नूर का जहाँ हर पल वासा.”
नासमझ हैं वे जो संतों के सामने होने पर भी आँखें बंद कर के शीश झुका लेते है, उन पर तो पूरी दया-द्रष्टि ही नहीं पड़ पाती और वे अभागे अपने ही कर्मों से, वंचित रह जाते है, यह भी काल का ही खेल ही है जी. पर इस पिंड देश के मुकाबले, सतगुरु का जो सूक्ष्म रूप, चिदाकाश में, अति विशाल और चैतन्य है यानि नूरानी और रूहानी है, उसका दर्शन जब तक दोनों आँखों की धारें तीसरे तिल पर मिल कर एक न होंगी, नहीं होगा. यह कोई सहज भी नहीं है, पूरा जनम भी लग जाता है. पर जब मालिक की दया-द्रष्टि होती है तब जन्मों का काज पल-छिन में हो जाता है. तो अब से “शब्द स्वरुप” के दैहिक दर्शन, दोनों आँखिन खोल कर और द्रष्टि से द्रष्टि मिला कर ही करना. मालिक अपनी दया से हर कारज सुफल बनायेंगे .
मनुष्य चोला मिलना और फिर उसमे संत समागम होना और सतगुरु का सत्संग मिलना बड़े भाग की बात है. ऐसे शुभ अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए जीव को अंतर में “नाम” का दिया जला कर घट में व्याप्त अँधेरे को झट से दूर कर लेना चाहिए. यही भक्तों की सच्ची दिवाली है जी.......
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
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