Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... १९

संसार के सुख-दुःख और बन्धनों से उदासीनता और सत्संग, अंतरी व बाहरी ही परमार्थी कार्यवाही के अंग हैं –

दैहिक रूप से जाग्रत अवस्था में मनुष्य, मन, बुद्धि, चित और अहंकार इन चार मुख्य अन्तः करणीय घाटों के द्वारा ही कार्य रत होता है. तो परमार्थ की कार्यवाही में भी पहले इन्हीं के माध्यम से आगे बढ़ना होगा. इसमें जगत के प्रति कुछ हद तक उदासीनता का पैदा होना ज़रूरी है. कम से कम इतना तो ज़रूर ही कि अगर जगत के बन्धनों और नाशमान सुखों से विमुख होने और मालिक कुल के चरणों में प्रेम-प्रीत सहित सम्मुख होने के विषय में कहा जाय तो वह उसे ध्यान से सुन और समझ सके.
अन्य योनियों या पशुओं को सिर्फ अपनी वर्तमान अवस्था और उस से सम्बंधित इच्छाओं का ही ध्यान रहता है. पर परमार्थ यानि पैदा होने से पहले और म्रत्यु होने के बाद के विषय में विचार का संस्कार, मनुष्य देह में ही प्राप्त होता है. चाहे कोई नास्तिक हो या निचले से निचले स्तर का ही मनुष्य क्यों न हो, जीवन में कभी न कभी, तीन मूल भूत प्रश्न अवश्य ही विचारों में कौंध जाते हैं कि, मै कौन हूँ ?, कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाऊँगा ?
किन्तु जगत के प्रति उदासीनता इतनी सहज भी नहीं है, यह जन्म-जन्मान्तरों में अर्जित संस्कारों और कर्म फल से पैदा होती या उपजती है, जिसे ले कर जीव मनुष्य चोले में आता है. और ऐसा मालिक की मौज से ही होता है. यह ज़रूरी नहीं की सभी मनुष्य देह धारियों की ऐसी ही स्थिति हो, यह अधिकार तो मालिक की प्रीत से ही मिलता है. जो गफलत या वैराग किसी नामंज़ूर हादसे की वजह से पैदा होता है, परमार्थ की राह में उसका कोई अर्थ नहीं है, मालिक के चरणों में जो अनुराग के साथ वैराग पैदा होगा वही काबिल-ए-ऐतबार-ए-परमार्थ है.
सम्पूर्ण रचना में ऊपर से नीचे तक सभी मंडलों में एक तरह की समानता पाई जाती है, चक्र, कँवल की छाया है और कँवल, पदम् की, इस तरह मालिक का अस्क ऊपर से नीचे तक हर स्तर और मंडल में आता चला गया. इस तरह इंसानी चोला सयंम में सम्पूर्ण रचना का बेहद छोटे पैमाने पर एक नमूना या माडल ही है. हम पाते है की पशु, वनस्पति यहाँ तक की परमाणु में भी सर, धड़ और पैर समान रूप से नज़र आते हैं. इस तरह मालिक एक देशी भी है और सर्वदेशी भी, जैसे सूरज अपने स्थान पर एक देशी भी है और अपनी किरणों के द्वारा अपने मंडल में सर्वदेशी भी.
अब ज़रुरत इस बात की है की इस मनुष्य चोले में जो चैतन्य यह ऊपर से ले कर आया है उसे इस जगत में आवश्यकता से अधिक खर्च न करे बल्कि बचाए और समेट कर और आशा, अंतर में चलने और चढ़ने की बाँध कर, जो धर ऊपर से तीसरे तिल पर आ रही है, उसके साथ नाम और स्वरुप का मेल कर के उस चैतन्य धार की डोर थाम कर, ऊपरी मंडलों की ओर बढ़े, जिसकी युक्ति वक़्त नाम उपदेश के बताई जाती है. इस तरह सुरत मालिक के निज धाम तक पहुँच सकती है. यह “नाम” वर्णात्मक नहीं, पर “ध्वनात्मक नाम” है, जिसकी धुन अंतर में ही गूँज रही है. तीसरे तिल पर, नामी के नाम का, मन में सिमरन किया जाय और मन की ज़बान से दोहराया जाय, तो धीरे-धीरे इसका स्वर बदल कर उस धुन से मिल जाएगा जो की अंतर में गूँज रही है और इस तरह अंतर में वह “नाम” गाजने लगेगा जो सच्चा और ध्वनात्मक है. तीसरे तिल पर मनुष्य चोले में चैतन्य का निर्मल रूप है, जो की उसने इस जगत में धारण किया है और वहां पर धार ऊपर से आ रही है, इसी धार से मेल होने पर खिंचाव ऊपर की ओर होता है, यही अंतरी सत्संग है. जो जीव चेत कर इस अभ्यास में लगे हुए हैं, उनका संग-साथ ही बाहरी सत्संग है.
इस तरह अंतरी व बाहरी सत्संग से मालिक के चरणों में अनुराग पैदा हो कर संसार की नश्वरता से सच्चा वैराग पैदा होगा और जीव अंतर में सिमट कर चैतन्य धार में मिल कर, एक दिन निज धाम और सच्ची मुक्ति को प्राप्त हो जाएगा.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी ,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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