अंतर्यात्रा ..... १६
सुरत रत शगल रूहानी .....
परमार्थ की कार्यवाही, तन-मन की सीमाओं से किसी हद तक ऊपर उठ कर, सुरत की लगन से ही हो सकती है. सुरत जो की मालिक का ही अंश है, तो सुरत, जब तक की मन व माया के आवरणों को भेद कर, निर्मल चैतन्य देश में न पहुंचेगी और अपने अंशी में न जा मिलेगी, तब तक उसको परम शांति, संतुष्टि, तृप्ति और परम आनंद प्राप्त नहीं हो सकता.
संसार में आम तौर पर जो भी धार्मिक रीतियाँ और तरीके परमार्थ के नाम पर ज़ारी हैं, उनसे सुरत कभी भी अपने परम लक्ष तक नही पहुँच सकती.. इस तरह के सभी तौर-तरीके सुरत को ब्रह्मांडीय व्यस्था में फसाय रखने के लिए, काल के रचे पाखण्ड ही हैं.
तीर्थ यात्रा से तो कर्मों का बोझा ही बढ़ता जाता है.तीर्थों का हाल यह है की वहां सिवाय व्यापारियों और बाजीगरों के तमाशों की कुछ नहीं बचा और जीव भी इन्हीं के रसों में फस जाता है.साफ नियत और सच्चे दिल से किया गया तीर्थ, विरलों से ही बन पाता है. जो कार्यवाही सच्ची भक्ति से की तो शुभ कर्म फल लाती है, और “पितृ लोक” या कोई विरला “स्वर्ग” तक पहुँच पाता है. पर अधिकतर को तो, देह छूटने पर प्रेत, पिशाच या पशु योनी में ही जाते देखा.
इससे बढ़ कर जो जगत में परमार्थी कार्यवाहियां देखीं, उसमे “विधा योग” की तो कोई वास्तविकता ही नहीं है, बड़े-बड़े विधावानों को तोते की तरह रट कर ज्ञान बघारते देखा है. “प्राण योग” की हद भी मात्र स्थूल देह तक ही सीमित है. “बुद्धि योग” से भी बस अंतःकरण की ही कुछ हद तक सफाई हो सकती है. “परा विधा” या सूक्ष्म प्राण योग की रसाई भी ब्रह्म पद को पार नहीं कर सकती. बशर्ते की ये सब योग विधी पूर्वक किये जाएं, यानि उस विधि के अनुसार किये जाए, जो की इन को जारी करते वक़्त, इनके जारी करता आचार्यों द्वारा बताई गई थीं. बड़े-बड़े सूरमा और पतिव्रता स्त्रियाँ स्वर्ग को गयीं, किन्तु परमार्थ में स्वर्ग की कुछ भी महिमा नहीं है.स्वर्ग पहुँच कर भी न तो आवागमन छूटता है और न ही निर्मल आनंद ही प्राप्त होता है. फिर इन योग मार्गों के लिए जिन संयमो को आवश्यक बताया गया है, वे उस काल में भी अति कठिन होते थे, तभी तो ऋषि और मुनि हजारों वर्ष तपस्या में लगा देते थे. पर आज के समय में न तो जीव को हजारो वर्ष की आयु ही प्राप्त है और न ही जीव में वह काबलियत और ताकत ही बची है की इन सयमों को अपनाते हुए तप कर सके.
जीव की इसी दीन-हीन और दयनीय दशा को देख कर स्वयं राधास्वामी दयाल ने नर देह में, गुरु रूप में अवतरित हो कर, माया और काल के जाल में कुंठित जीव के सच्चे उद्धार के निमित्त “सहज भेद” को खोल कर बताया, जो की अब तक गूढ़ और गुप्त था. इसी सहज मार्ग पर चलने के मार्ग को संतमत और मंजिल को राधास्वामी नाम से प्रकट किया. और “नाम” के भेद का उपदेश किया. साथ ही मुक्ति मार्ग पर चलने के तरीके को, मार्ग के स्तरों, ठहरावों और धुर-धाम दिहानी “राधास्वामी दयाल” तक सुरत को पहुँचाने का भेद खोलते हुए, उसका अभ्यास करवाया. इसी “अभ्यास” को हम “शब्द-योग”, “सुरत-शब्द” व “सहज-योग” अभ्यास के नाम से जानते है. और राधास्वामी दयाल के नर देह में अवतरण को – “ परम पुरुष, पूरन धनि, समद दयाल हुज़ूर स्वामी जी महाराज” के नाम से. जिनका सांसारिक नाम, हुज़ूर शिव दयाल सिंह सेठ रहा. आपके पिता जी महाराज हुज़ूर दिलवाली सिंह जी सेठ, कौम खत्री, मोहल्ला पन्नी गली, शहर आगरा के निवासी थे, जहाँ कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने नर देह में अवतरण किया और काल के जाल और गाल में फसे जीवो के सच्चे उद्धार के निमित्त सत्संग रुपी बेड़ा जारी किया और उसे आगे बढ़ाने का जिम्मा अपने गुरमुख शिष्य, परम संत “हुज़ूर महाराज” - श्री सालिग्राम जी माथुर, जो की प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जनरल हुए, निवासी मोहल्ला पीपल मंडी, शहर आगरा को सोंपा.
आज के युग में सिर्फ संतमत ही वह मार्ग है, जिस पर चल कर निर्बल जीव, मन-माया के देश से निकल कर, सुरत-शब्द द्वारा, जो की सत्पुरुष की जान है, निर्मल चैतन्य और परम आनंद के देश में पहुँच सकता है. यह ज्ञानियों और योगेश्वरो के पद से बहुत ऊपर है. और सिर्फ यहीं पहुँच कर जीव चौरासी के योनी-चक्र से छूट सकता है. इस निर्मल चैतन्य के आनंद के समक्ष स्वर्ग आदि का आनंद बेहद फीका और थोथा है. फिर जो शुभ कर्म, सयंम-तप आदि करनी किसी से बन भी पड़ी तो शुभ कर्मो का फल समाप्त होने पर जगत में फिर से जनम लेना ही पड़ेगा और उस कर्म का जो शेष फल रह जाता है, उसी के अनुसार, जगत में फिर जनम लेने पर जगत की सब माया और कामनाए भी प्राप्त होती है जिस में फस कर काल, जीव को फिर से अधो गति की ओर ले जाता है, शास्त्र ऐसे तमाम उदाहरणों से भरे पड़े हैं.
इससे साबित होता है की “सुरत-शब्द” अभ्यास के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों का फल नाशमान ही है. दान आदि भी नाश्मान चीजो का ही होता है, तो उनका फल भी नशमान ही है. सिर्फ सुरत-शब्द अभ्यास ही एक मात्र उपाय है, जो की चौरासी से बचा सकता है. यह साध, संत और फकीरों का मत है और संसार के सभी मतों से हमेशा से अलग रहा है. फकीरों इसी “सुरत-शब्द अभ्यास” को “शगल सुल्तान-उल-अज़कार” कहा है. यह मालिक के सच्चे प्रेमियों और भक्तों का मार्ग है, इस मार्ग पर हिन्दू, मुस्लमान, सिख, इसाई, बहाई, बौद्ध, जैन आदि का कोई भेद नहीं है, यह हर मज़हब की हर हद से बहुत ऊंचा है. जिसे मालिक के सच्चे भक्त ही समझ पाते हैं.
प्रसंग वश – अक्सर सत्संगी कारोबार के विषय में, उचित-अनुचित के ख्याल में अटक जाते हैं. तो परमार्थी नुक्ते-नज़र से, हक-हलाल की कमाई वही है जो जीव अपने सात्विक हुनर से कमाता है, जिसमे उसकी मेहनत और पसीना लगा हो, जैसे कारीगरी का काम, शिक्षण कार्य, खेती व ऐसी नौकरी जिसमे जीव सयंम को विकारों से रहित रख सके आदि पर वकालत और पुलिस की नौकरी करते वक़्त संशय बना ही रहता है.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज.
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
सुरत रत शगल रूहानी .....
परमार्थ की कार्यवाही, तन-मन की सीमाओं से किसी हद तक ऊपर उठ कर, सुरत की लगन से ही हो सकती है. सुरत जो की मालिक का ही अंश है, तो सुरत, जब तक की मन व माया के आवरणों को भेद कर, निर्मल चैतन्य देश में न पहुंचेगी और अपने अंशी में न जा मिलेगी, तब तक उसको परम शांति, संतुष्टि, तृप्ति और परम आनंद प्राप्त नहीं हो सकता.
संसार में आम तौर पर जो भी धार्मिक रीतियाँ और तरीके परमार्थ के नाम पर ज़ारी हैं, उनसे सुरत कभी भी अपने परम लक्ष तक नही पहुँच सकती.. इस तरह के सभी तौर-तरीके सुरत को ब्रह्मांडीय व्यस्था में फसाय रखने के लिए, काल के रचे पाखण्ड ही हैं.
तीर्थ यात्रा से तो कर्मों का बोझा ही बढ़ता जाता है.तीर्थों का हाल यह है की वहां सिवाय व्यापारियों और बाजीगरों के तमाशों की कुछ नहीं बचा और जीव भी इन्हीं के रसों में फस जाता है.साफ नियत और सच्चे दिल से किया गया तीर्थ, विरलों से ही बन पाता है. जो कार्यवाही सच्ची भक्ति से की तो शुभ कर्म फल लाती है, और “पितृ लोक” या कोई विरला “स्वर्ग” तक पहुँच पाता है. पर अधिकतर को तो, देह छूटने पर प्रेत, पिशाच या पशु योनी में ही जाते देखा.
इससे बढ़ कर जो जगत में परमार्थी कार्यवाहियां देखीं, उसमे “विधा योग” की तो कोई वास्तविकता ही नहीं है, बड़े-बड़े विधावानों को तोते की तरह रट कर ज्ञान बघारते देखा है. “प्राण योग” की हद भी मात्र स्थूल देह तक ही सीमित है. “बुद्धि योग” से भी बस अंतःकरण की ही कुछ हद तक सफाई हो सकती है. “परा विधा” या सूक्ष्म प्राण योग की रसाई भी ब्रह्म पद को पार नहीं कर सकती. बशर्ते की ये सब योग विधी पूर्वक किये जाएं, यानि उस विधि के अनुसार किये जाए, जो की इन को जारी करते वक़्त, इनके जारी करता आचार्यों द्वारा बताई गई थीं. बड़े-बड़े सूरमा और पतिव्रता स्त्रियाँ स्वर्ग को गयीं, किन्तु परमार्थ में स्वर्ग की कुछ भी महिमा नहीं है.स्वर्ग पहुँच कर भी न तो आवागमन छूटता है और न ही निर्मल आनंद ही प्राप्त होता है. फिर इन योग मार्गों के लिए जिन संयमो को आवश्यक बताया गया है, वे उस काल में भी अति कठिन होते थे, तभी तो ऋषि और मुनि हजारों वर्ष तपस्या में लगा देते थे. पर आज के समय में न तो जीव को हजारो वर्ष की आयु ही प्राप्त है और न ही जीव में वह काबलियत और ताकत ही बची है की इन सयमों को अपनाते हुए तप कर सके.
जीव की इसी दीन-हीन और दयनीय दशा को देख कर स्वयं राधास्वामी दयाल ने नर देह में, गुरु रूप में अवतरित हो कर, माया और काल के जाल में कुंठित जीव के सच्चे उद्धार के निमित्त “सहज भेद” को खोल कर बताया, जो की अब तक गूढ़ और गुप्त था. इसी सहज मार्ग पर चलने के मार्ग को संतमत और मंजिल को राधास्वामी नाम से प्रकट किया. और “नाम” के भेद का उपदेश किया. साथ ही मुक्ति मार्ग पर चलने के तरीके को, मार्ग के स्तरों, ठहरावों और धुर-धाम दिहानी “राधास्वामी दयाल” तक सुरत को पहुँचाने का भेद खोलते हुए, उसका अभ्यास करवाया. इसी “अभ्यास” को हम “शब्द-योग”, “सुरत-शब्द” व “सहज-योग” अभ्यास के नाम से जानते है. और राधास्वामी दयाल के नर देह में अवतरण को – “ परम पुरुष, पूरन धनि, समद दयाल हुज़ूर स्वामी जी महाराज” के नाम से. जिनका सांसारिक नाम, हुज़ूर शिव दयाल सिंह सेठ रहा. आपके पिता जी महाराज हुज़ूर दिलवाली सिंह जी सेठ, कौम खत्री, मोहल्ला पन्नी गली, शहर आगरा के निवासी थे, जहाँ कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने नर देह में अवतरण किया और काल के जाल और गाल में फसे जीवो के सच्चे उद्धार के निमित्त सत्संग रुपी बेड़ा जारी किया और उसे आगे बढ़ाने का जिम्मा अपने गुरमुख शिष्य, परम संत “हुज़ूर महाराज” - श्री सालिग्राम जी माथुर, जो की प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जनरल हुए, निवासी मोहल्ला पीपल मंडी, शहर आगरा को सोंपा.
आज के युग में सिर्फ संतमत ही वह मार्ग है, जिस पर चल कर निर्बल जीव, मन-माया के देश से निकल कर, सुरत-शब्द द्वारा, जो की सत्पुरुष की जान है, निर्मल चैतन्य और परम आनंद के देश में पहुँच सकता है. यह ज्ञानियों और योगेश्वरो के पद से बहुत ऊपर है. और सिर्फ यहीं पहुँच कर जीव चौरासी के योनी-चक्र से छूट सकता है. इस निर्मल चैतन्य के आनंद के समक्ष स्वर्ग आदि का आनंद बेहद फीका और थोथा है. फिर जो शुभ कर्म, सयंम-तप आदि करनी किसी से बन भी पड़ी तो शुभ कर्मो का फल समाप्त होने पर जगत में फिर से जनम लेना ही पड़ेगा और उस कर्म का जो शेष फल रह जाता है, उसी के अनुसार, जगत में फिर जनम लेने पर जगत की सब माया और कामनाए भी प्राप्त होती है जिस में फस कर काल, जीव को फिर से अधो गति की ओर ले जाता है, शास्त्र ऐसे तमाम उदाहरणों से भरे पड़े हैं.
इससे साबित होता है की “सुरत-शब्द” अभ्यास के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों का फल नाशमान ही है. दान आदि भी नाश्मान चीजो का ही होता है, तो उनका फल भी नशमान ही है. सिर्फ सुरत-शब्द अभ्यास ही एक मात्र उपाय है, जो की चौरासी से बचा सकता है. यह साध, संत और फकीरों का मत है और संसार के सभी मतों से हमेशा से अलग रहा है. फकीरों इसी “सुरत-शब्द अभ्यास” को “शगल सुल्तान-उल-अज़कार” कहा है. यह मालिक के सच्चे प्रेमियों और भक्तों का मार्ग है, इस मार्ग पर हिन्दू, मुस्लमान, सिख, इसाई, बहाई, बौद्ध, जैन आदि का कोई भेद नहीं है, यह हर मज़हब की हर हद से बहुत ऊंचा है. जिसे मालिक के सच्चे भक्त ही समझ पाते हैं.
प्रसंग वश – अक्सर सत्संगी कारोबार के विषय में, उचित-अनुचित के ख्याल में अटक जाते हैं. तो परमार्थी नुक्ते-नज़र से, हक-हलाल की कमाई वही है जो जीव अपने सात्विक हुनर से कमाता है, जिसमे उसकी मेहनत और पसीना लगा हो, जैसे कारीगरी का काम, शिक्षण कार्य, खेती व ऐसी नौकरी जिसमे जीव सयंम को विकारों से रहित रख सके आदि पर वकालत और पुलिस की नौकरी करते वक़्त संशय बना ही रहता है.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज.
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
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