अंतर्यात्रा ..... २१
उनको नहीं उपदेश हमारा , जिनको जगत कामना मारा ..
जब जीव की लगन जगत से विलग होती है, तब उसके मन में यह विचार आता है कि क्या ऐसी भी कोई दुनिया है, जहाँ कोई दुःख न हो, क्लेश और कष्ट न हो ?
यदि भाग्य से उसे संत, साध, महात्मा (अभ्यासी) या भक्त (अधिकारी जीव) मिल जाएं तो उसकी साध पूरी हो जाए .
सुरत मालिक की अंश है और इस मनुष्य देह में उसने किसी स्तर से आ कर तीसरे तिल पर डेरा डाला है. फिर यहाँ से अंतःकरण के घाट पर, मन का अह्मं और माया रूप इन्द्रियों के साथ जाग्रत अवस्था में, जगत में काज करती है. इसी अंतःकरण के घाट पर, सुख-दुःख और संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं. इस प्रकार एक लम्बी अवधि तक जगत में वास करके और सुख-दुःख उठा कर, - यह ज़रूरी नहीं कि एक ही जन्म में ही जीव का मन जगत से उपराम हो जाय, यह कई जन्मों का बटोरा हुआ भी होता है जो कि प्रारब्ध के रूप में जमा होता रहता है और जीव इसे साथ ले कर जन्म लेता है. तब कहीं जा कर उसका चित जगत से विलग होता है और जगत के भोग-विलास और सुख-दुःख नाशमान और व्यर्थ नज़र आने लगते हैं. और यह विचार पैदा होने लगते हैं कि, क्या ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ परम शांति मिल सके .... उस वक़्त यदि भाग्य से ऐसे गुरु मिल जाए जो खुद अंतर्मुख हों और अपनी सामर्थ से जिज्ञासु को भी अंतर में ले जा सके, तो जीव का कल्याण निश्चित है. इसके लिए ज़रूरी है कि गुरु पूरे हों, जो दयाल देश से आये और मालिक में रत हैं या साध गुरु हों, जो अंतर में मंडलों को तय करके ब्रह्म पद की चोटी तक पहुंचे हैं या साधक हों, जो पिंड के पार पहुंचे हैं या भक्त हों जो अधिकारी जीव होते हैं और संत मत के आधार भूत, मूल सिधान्तों से भली भाँती परिचित होते हैं, जो की हाल वक़्त में मार्ग पर चल रहे हैं और जिनका ध्यान मालिक कुल के चरणों में लगा हुआ है. ये मन-माया के झकोलों में गिरते हैं, संभलते हैं, फिर चलते हैं पर हार कर कभी थकते नहीं, रुकते नहीं – यही संत सिपाही, शूरवीर हैं.
“ विषयन से जो होय उदासा, परमारथ की जा मन आसा.
धन संतान प्रीत नहीं जाके, जगत पदारथ चाह न ताके.
तन इन्द्री आसक्त न होई, नींद भूख आलस जिन खोई.
बिरह बान जिन हिरदे लागा, खोजत फिरे साध गुरु जागा.
साध फकीर मिले जो कोई , सेवा करे करे दिलजोई.
ऐसी करनी जाकी देखे, आप आय सतगुरु तिस मिलें. ”
ऐसे ही जीवों के लिए संतमत राधास्वामी का उपदेश है. पर जो जीव संसारी, विषयी और टेकी हैं, उनके लिए हमारा उपदेश नहीं है.
जब मुर्शिद कामिल याकि सतगुरु पूरे से समझ और मार्ग की निशानी ले कर जीव अंतर में बढ़ता है, तब उस धार से जो मालिक के चरणों से आ रही है, एक रोज़ जा मिलता है, जिसे अनहद शब्द और सुल्तान-उल-अज़कार कहा गया है. फुकराए-कामिल और सतगुरु पूरे का एक ही मत है, भाषा के फेर में इन्हें अलहदा न समझा जाय. कर्मकांडी, वेदपाठी, क़ाज़ी, मुफ़्ती आदि, कामिल संतों के भेद को कभी भी जान नहीं सकते.
मालिक की ऐसी ही मौज है ....
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .
उनको नहीं उपदेश हमारा , जिनको जगत कामना मारा ..
जब जीव की लगन जगत से विलग होती है, तब उसके मन में यह विचार आता है कि क्या ऐसी भी कोई दुनिया है, जहाँ कोई दुःख न हो, क्लेश और कष्ट न हो ?
यदि भाग्य से उसे संत, साध, महात्मा (अभ्यासी) या भक्त (अधिकारी जीव) मिल जाएं तो उसकी साध पूरी हो जाए .
सुरत मालिक की अंश है और इस मनुष्य देह में उसने किसी स्तर से आ कर तीसरे तिल पर डेरा डाला है. फिर यहाँ से अंतःकरण के घाट पर, मन का अह्मं और माया रूप इन्द्रियों के साथ जाग्रत अवस्था में, जगत में काज करती है. इसी अंतःकरण के घाट पर, सुख-दुःख और संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं. इस प्रकार एक लम्बी अवधि तक जगत में वास करके और सुख-दुःख उठा कर, - यह ज़रूरी नहीं कि एक ही जन्म में ही जीव का मन जगत से उपराम हो जाय, यह कई जन्मों का बटोरा हुआ भी होता है जो कि प्रारब्ध के रूप में जमा होता रहता है और जीव इसे साथ ले कर जन्म लेता है. तब कहीं जा कर उसका चित जगत से विलग होता है और जगत के भोग-विलास और सुख-दुःख नाशमान और व्यर्थ नज़र आने लगते हैं. और यह विचार पैदा होने लगते हैं कि, क्या ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ परम शांति मिल सके .... उस वक़्त यदि भाग्य से ऐसे गुरु मिल जाए जो खुद अंतर्मुख हों और अपनी सामर्थ से जिज्ञासु को भी अंतर में ले जा सके, तो जीव का कल्याण निश्चित है. इसके लिए ज़रूरी है कि गुरु पूरे हों, जो दयाल देश से आये और मालिक में रत हैं या साध गुरु हों, जो अंतर में मंडलों को तय करके ब्रह्म पद की चोटी तक पहुंचे हैं या साधक हों, जो पिंड के पार पहुंचे हैं या भक्त हों जो अधिकारी जीव होते हैं और संत मत के आधार भूत, मूल सिधान्तों से भली भाँती परिचित होते हैं, जो की हाल वक़्त में मार्ग पर चल रहे हैं और जिनका ध्यान मालिक कुल के चरणों में लगा हुआ है. ये मन-माया के झकोलों में गिरते हैं, संभलते हैं, फिर चलते हैं पर हार कर कभी थकते नहीं, रुकते नहीं – यही संत सिपाही, शूरवीर हैं.
“ विषयन से जो होय उदासा, परमारथ की जा मन आसा.
धन संतान प्रीत नहीं जाके, जगत पदारथ चाह न ताके.
तन इन्द्री आसक्त न होई, नींद भूख आलस जिन खोई.
बिरह बान जिन हिरदे लागा, खोजत फिरे साध गुरु जागा.
साध फकीर मिले जो कोई , सेवा करे करे दिलजोई.
ऐसी करनी जाकी देखे, आप आय सतगुरु तिस मिलें. ”
ऐसे ही जीवों के लिए संतमत राधास्वामी का उपदेश है. पर जो जीव संसारी, विषयी और टेकी हैं, उनके लिए हमारा उपदेश नहीं है.
जब मुर्शिद कामिल याकि सतगुरु पूरे से समझ और मार्ग की निशानी ले कर जीव अंतर में बढ़ता है, तब उस धार से जो मालिक के चरणों से आ रही है, एक रोज़ जा मिलता है, जिसे अनहद शब्द और सुल्तान-उल-अज़कार कहा गया है. फुकराए-कामिल और सतगुरु पूरे का एक ही मत है, भाषा के फेर में इन्हें अलहदा न समझा जाय. कर्मकांडी, वेदपाठी, क़ाज़ी, मुफ़्ती आदि, कामिल संतों के भेद को कभी भी जान नहीं सकते.
मालिक की ऐसी ही मौज है ....
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .
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