अंतर्यात्रा ..... २०
छाप, तिलक सब छीनी मोसे,
रंगी तोर रंग, रंगरेज़ा रे ......
जब संत अवतरित होते हैं, .... इस अवतरित होने का अर्थ संत मत के अनुसार समझना आवश्यक है.
संत कभी अवतरित नहीं होते , यानि संत कभी भी अवतार धारण नहीं करते. अवतार ब्रह्मांडीय शक्तियां धारण करती है, वह भी जीवों के पुकारने पर, यही अवतरित होना है. वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में और बौद्ध व जैन धर्मों में अवतार वाद को विशेष महत्व् दिया गया है .
फिर संतों के अवतरित होने का क्या अर्थ है ?
संतों का “अवतरण” होता है, यानि वे दयाल की मौज से संसार में आते हैं, और दयाल की ही इच्छा से गुप्त व प्रकट रूप में रहते है, पर धरा कभी भी संतों से रहित नहीं होती. जब धरती सत्यलोक की सीध में आती है यानि मध्य में कोई ब्रह्मांडीय-खगोलीय पिंड नहीं होता, तब सतलोक की किरण धरती पर पड़ती है, यही संतो का अवतरण है.
आप पूछ सकते है की जब यह किरण अन्य किसी पिंड पर पड़ती है तब क्या होता है ? यह एक आवश्यक प्रश्न है. उत्तर यह है की तब वह पिंड चेतना की विशेष सामर्थ से भर जाता है.
तो संत जीव के पुकारने पर अवतरित नहीं होते बल्कि हर वक़्त मौजूद होते हैं. मालिक की इच्छा से, कभी गुप्त, कभी प्रकट.
मालिक की आज्ञा से जब वे जगत में प्रकट रूप से कार्यवाही करते है, उसी को संतों का “अवतरित होना” कहा गया है.
..... तो जब संत संसार में “अवतरित” होते है, उस वक़्त में काल अवतार धारण नहीं कर सकता, यह विधि का नहीं पर कुल मालिक कर्ता का विधान है. जो कभी टल नहीं सकता. फिर भी काल अपने प्रभाव से, अनेक तरह के विघ्न सत्संग में डालता है. अक्सर तो सत्संग संगत में से ही किसी को विरोधी बना कर उभार देता है. पर जिज्ञासु जीव को उचित है कि वह अपने ध्यान को विरोध के घाटों पर न रख कर, सतगुरु के वचनों पर ही रखे, इसी में जीव का कल्याण है. संतों के दरबार में विरोध की गति अधिक लम्बी नहीं होती मालिक की मौज से शीघ्र ही सब घाट शांत हो जाते हैं .
सुधा रस, तो नाम की धार है जी. इसी से सु-धार – सुधार होगा. यानि जीव का कल्याण होगा. मन के सभी मैल और मलीनता साफ़ हो जाती है. और जीव सु-धार आ जाता है. पर अभी तो मन सुरत को अपने जाल में बांधे बैठा है. वह सहज ही उसको न छूटने देगा. जब संत “अवतरित” होते है और जो जीव बढ़ भागी, उनकी संगत पाते हैं, निश्चित ही उनके बंधन ढीले पड़ जाते है, संतों की यही दया है, जिसे जीव अपने जीवन में कल्याण के रूप में होता हुआ पाते है और एक दिन दयाल की मौज से निज धाम पहुँच जाते हैं. यही संतों के “अवतरित” होने का वास्तविक अर्थ है, वे अपने निज-आत्मिक पुत्रों को अपने साथ ले जाते हैं.
जो सच्चा भक्त है वह खुद ही नहीं तरता, वह तो तरन-तारण है, वह अपने साथ बहुतों को तार ले जाता है, वही सच्चा गुरमुख है. जब संत गुप्त होते है तब गुरमुख ही सुधा-रत है और जीवों के मध्य उद्धारक भी. तो जो भी उससे प्रीत रखते हैं, उन सब के तरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.
सतगुरु तो न्यारे ही हैं जी, मन-माया को नाथ कर, सुरत को साध लेते हैं. जगत में खुद तो बेहाल रहते हैं पर चैतन्य को बहाल कर देते हैं.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
छाप, तिलक सब छीनी मोसे,
रंगी तोर रंग, रंगरेज़ा रे ......
जब संत अवतरित होते हैं, .... इस अवतरित होने का अर्थ संत मत के अनुसार समझना आवश्यक है.
संत कभी अवतरित नहीं होते , यानि संत कभी भी अवतार धारण नहीं करते. अवतार ब्रह्मांडीय शक्तियां धारण करती है, वह भी जीवों के पुकारने पर, यही अवतरित होना है. वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में और बौद्ध व जैन धर्मों में अवतार वाद को विशेष महत्व् दिया गया है .
फिर संतों के अवतरित होने का क्या अर्थ है ?
संतों का “अवतरण” होता है, यानि वे दयाल की मौज से संसार में आते हैं, और दयाल की ही इच्छा से गुप्त व प्रकट रूप में रहते है, पर धरा कभी भी संतों से रहित नहीं होती. जब धरती सत्यलोक की सीध में आती है यानि मध्य में कोई ब्रह्मांडीय-खगोलीय पिंड नहीं होता, तब सतलोक की किरण धरती पर पड़ती है, यही संतो का अवतरण है.
आप पूछ सकते है की जब यह किरण अन्य किसी पिंड पर पड़ती है तब क्या होता है ? यह एक आवश्यक प्रश्न है. उत्तर यह है की तब वह पिंड चेतना की विशेष सामर्थ से भर जाता है.
तो संत जीव के पुकारने पर अवतरित नहीं होते बल्कि हर वक़्त मौजूद होते हैं. मालिक की इच्छा से, कभी गुप्त, कभी प्रकट.
मालिक की आज्ञा से जब वे जगत में प्रकट रूप से कार्यवाही करते है, उसी को संतों का “अवतरित होना” कहा गया है.
..... तो जब संत संसार में “अवतरित” होते है, उस वक़्त में काल अवतार धारण नहीं कर सकता, यह विधि का नहीं पर कुल मालिक कर्ता का विधान है. जो कभी टल नहीं सकता. फिर भी काल अपने प्रभाव से, अनेक तरह के विघ्न सत्संग में डालता है. अक्सर तो सत्संग संगत में से ही किसी को विरोधी बना कर उभार देता है. पर जिज्ञासु जीव को उचित है कि वह अपने ध्यान को विरोध के घाटों पर न रख कर, सतगुरु के वचनों पर ही रखे, इसी में जीव का कल्याण है. संतों के दरबार में विरोध की गति अधिक लम्बी नहीं होती मालिक की मौज से शीघ्र ही सब घाट शांत हो जाते हैं .
सुधा रस, तो नाम की धार है जी. इसी से सु-धार – सुधार होगा. यानि जीव का कल्याण होगा. मन के सभी मैल और मलीनता साफ़ हो जाती है. और जीव सु-धार आ जाता है. पर अभी तो मन सुरत को अपने जाल में बांधे बैठा है. वह सहज ही उसको न छूटने देगा. जब संत “अवतरित” होते है और जो जीव बढ़ भागी, उनकी संगत पाते हैं, निश्चित ही उनके बंधन ढीले पड़ जाते है, संतों की यही दया है, जिसे जीव अपने जीवन में कल्याण के रूप में होता हुआ पाते है और एक दिन दयाल की मौज से निज धाम पहुँच जाते हैं. यही संतों के “अवतरित” होने का वास्तविक अर्थ है, वे अपने निज-आत्मिक पुत्रों को अपने साथ ले जाते हैं.
जो सच्चा भक्त है वह खुद ही नहीं तरता, वह तो तरन-तारण है, वह अपने साथ बहुतों को तार ले जाता है, वही सच्चा गुरमुख है. जब संत गुप्त होते है तब गुरमुख ही सुधा-रत है और जीवों के मध्य उद्धारक भी. तो जो भी उससे प्रीत रखते हैं, उन सब के तरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.
सतगुरु तो न्यारे ही हैं जी, मन-माया को नाथ कर, सुरत को साध लेते हैं. जगत में खुद तो बेहाल रहते हैं पर चैतन्य को बहाल कर देते हैं.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home