अंतर्यात्रा .....१३
सुरत सुहानी मालिक सरना ......
राधास्वामी दयाल ने एक बार जिसे सरन दे दी यानि जिसके भीतर शब्द खुल गया, उसे मालिक फिर कभी नहीं छोरता, तो शब्द भी कभी नहीं बिसरत. हाँ, जीव मन-माया के फेर में अपने स्तर से ज़रूर गिर सकता है, पर द्वार कभी बंद नहीं होता.
काल बहुत भोकाल मचाता है, माया भी तरह-तरह से घातें लगाती है. दोनों मिल कर बहुत हल्ला-गुल्ला करते हैं, शब्द से छुराना चाहते हैं, मन कितना ही चिल्लाय पर सुरत जो एक बार चेत गई, वो फिर अलग हो नहीं सकती – सुरत तो दयाल का अंश है जी. जैसे सूरज और किरण का साथ, इन्हें अलग नहीं किया ज सकता.
जिस भी सुरत में जरा सी भी काबलियत पैदा हो गई की उसे जगाया ज सके, उसे दयाल अपनी निज सरन में ले लेते हैं. अन्य सभी जीवों पर, उनकी देहिक और आत्मिक व मानसिक स्थिति के अनुसार दया की धर बहती रहती है.
जिन जीवों में सरन की लगन नहीं होती और संसार के रस ही प्रधान होते हैं, और अंतर रस को व्यर्थ जान कर नकारते हैं, उनके परमार्थी भाग जागने का अभी समय नहीं आया है.
सुरत को मन-माया के सुख-दुःख में फसा देख कर काल बहुत खुश होता है, ऐसी सूरतें उसका भोग जो हैं. काल इन्हीं भटकी हुई सूरतों को भोगता है. हर सुरत का स्वाभाविक खिंचाव दयाल देश की ऑर ही होता है. पर काल और माया का तनाव उसे जगत की दिशा में रोके रहता है. जैसे लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती, पर जब उस पर बोझा भारी होता है तब उस बोझ के कारण डूबी रहती है. यही कर्मों का बोझा है जो सुरत को चेतने नहीं देता, पर जब कर्मों का बोझा हल्का पड़ता है, सुरत चैतन्य ऊपरी मंडलों में पैठने लगती है और जो कर्मों का कुछ बोझा बाख रहता है, वही शेष कर्म हैं, जिनका निपटारा सत्संग में होता है.
मालिक चाहे इन सभी बोझों को एक पल में काट दे, पर मौज ऐसी नहीं. यदि एकदम से कर्म कट जाएँ तो सुरत तो सीधे सतलोक में खिंच जायेगी पर अचेत ही रह जायगी, और बेसुधी में मालिक के चरण-सरन के आनंद से वंचित ही रह जायगी साथ ही वह अर्थ भी पूर्ण न होगा जिसलिए सुरत को जगत में भेजा गया है. तो यही मालिक की मौज है की, सुरत अचेत न रहे बल्कि चेते और चेत कर करे – “अंतर्यात्रा” , अनंत की . तो सही तरीका यही है की, कल और कर्म का कर्जा काट कर ही प्रारम्भ करे हर सुरत, ”अंतर्यात्रा”.
सत्संग तो बेड़ा है, बहुतेरे ही इस पर चढ़ आते हैं, सो जिनकी लगन सच्ची है, उनके कर्म जल्दी कट जाते है और जो तमाशबीन है, उनके कर्म देर से कटते हैं पर कटते सभी के है, यही सत्संग की महिमा है. राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
सुरत सुहानी मालिक सरना ......
राधास्वामी दयाल ने एक बार जिसे सरन दे दी यानि जिसके भीतर शब्द खुल गया, उसे मालिक फिर कभी नहीं छोरता, तो शब्द भी कभी नहीं बिसरत. हाँ, जीव मन-माया के फेर में अपने स्तर से ज़रूर गिर सकता है, पर द्वार कभी बंद नहीं होता.
काल बहुत भोकाल मचाता है, माया भी तरह-तरह से घातें लगाती है. दोनों मिल कर बहुत हल्ला-गुल्ला करते हैं, शब्द से छुराना चाहते हैं, मन कितना ही चिल्लाय पर सुरत जो एक बार चेत गई, वो फिर अलग हो नहीं सकती – सुरत तो दयाल का अंश है जी. जैसे सूरज और किरण का साथ, इन्हें अलग नहीं किया ज सकता.
जिस भी सुरत में जरा सी भी काबलियत पैदा हो गई की उसे जगाया ज सके, उसे दयाल अपनी निज सरन में ले लेते हैं. अन्य सभी जीवों पर, उनकी देहिक और आत्मिक व मानसिक स्थिति के अनुसार दया की धर बहती रहती है.
जिन जीवों में सरन की लगन नहीं होती और संसार के रस ही प्रधान होते हैं, और अंतर रस को व्यर्थ जान कर नकारते हैं, उनके परमार्थी भाग जागने का अभी समय नहीं आया है.
सुरत को मन-माया के सुख-दुःख में फसा देख कर काल बहुत खुश होता है, ऐसी सूरतें उसका भोग जो हैं. काल इन्हीं भटकी हुई सूरतों को भोगता है. हर सुरत का स्वाभाविक खिंचाव दयाल देश की ऑर ही होता है. पर काल और माया का तनाव उसे जगत की दिशा में रोके रहता है. जैसे लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती, पर जब उस पर बोझा भारी होता है तब उस बोझ के कारण डूबी रहती है. यही कर्मों का बोझा है जो सुरत को चेतने नहीं देता, पर जब कर्मों का बोझा हल्का पड़ता है, सुरत चैतन्य ऊपरी मंडलों में पैठने लगती है और जो कर्मों का कुछ बोझा बाख रहता है, वही शेष कर्म हैं, जिनका निपटारा सत्संग में होता है.
मालिक चाहे इन सभी बोझों को एक पल में काट दे, पर मौज ऐसी नहीं. यदि एकदम से कर्म कट जाएँ तो सुरत तो सीधे सतलोक में खिंच जायेगी पर अचेत ही रह जायगी, और बेसुधी में मालिक के चरण-सरन के आनंद से वंचित ही रह जायगी साथ ही वह अर्थ भी पूर्ण न होगा जिसलिए सुरत को जगत में भेजा गया है. तो यही मालिक की मौज है की, सुरत अचेत न रहे बल्कि चेते और चेत कर करे – “अंतर्यात्रा” , अनंत की . तो सही तरीका यही है की, कल और कर्म का कर्जा काट कर ही प्रारम्भ करे हर सुरत, ”अंतर्यात्रा”.
सत्संग तो बेड़ा है, बहुतेरे ही इस पर चढ़ आते हैं, सो जिनकी लगन सच्ची है, उनके कर्म जल्दी कट जाते है और जो तमाशबीन है, उनके कर्म देर से कटते हैं पर कटते सभी के है, यही सत्संग की महिमा है. राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
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