अंतर्यात्रा ..... ११
सच्चा अनुराग – खोजत फिरे साध गुरु जागा .
शब्द धार का सच्चा अनुराग, सुरत के अंतर में ही पैदा होता है. सुरत जो की मालिक की अंश है तो निज देश से उसके अंतर में जो धार आ रही है, उसे ग्रहण करने की सामर्थ भी सुरत में ही है. पर मन,माया और देह के गिलाफों की वजह से शब्द-धुन धार का असर मालूम नहीं देता, जैसे-जैसे मन, माया के ये गिलाफ या की खोल, सूक्ष्म और कमतर होते जाते है, उसी के अनुसार जीव में यह अनहद धार स्पष्ट नज़र आने लगती है.
तो जब तक सुरत में प्रेम नहीं जागा है, जो भी कार्यवाही भक्ति के नाम से की जाती है या की जा रही है, वह स्थाई नहीं हो सकती. सुरत में जो भक्ती, प्रेम और प्रीत से जागेगी, उद्धार तो उसी से होगा.
भक्ति करने की रीत तो हर स्तर पर समान ही है पर प्रीत की रीत निराली है. प्रीत तो जानवर भी अपने बच्चे से करते हैं और जान क्त दे देते हैं, पर परमार्थी इश्क की किस्म अलग है. ऐसे परमार्थी आशिक, तन-मन की सारी सामर्थ मालिक के चरणों में अर्पित करने की आस में ही जीते हैं. ऐसे ही सच्चे आशिकों की श्रेणी में से भक्त पैदा होते हैं. भक्ति में ही उमंग छिपी होती है. पर भक्ति भी जगत में अलग-अलग होती देखि, कोई माया की भक्ति में लीन, लोभ-मोह में फसां है, कोई ज्ञान की भक्ति में लगा है, जैसे वेदांती और वाचक ज्ञानी, जिन्होंने प्रेम की जड़ ही काट दी. इस तरह की सांसारिक भक्ति में उमंग नहीं होती बल्कि निज स्वार्थ छिपा होता है.
आसन लगाने या आँखे बंद कर के बैठ जाने से कुछ भी नहीं होगा. यह तो मुंगेरी लाल के हसीं सपनों की तरह ही है. इन बातो में लग कर परमार्थ का भाग नहीं जागता. जब तक मन निर्मल न होगा कुछ भी न होगा. सो सतगुरु पहले जीव को संसार की अग्नि में ही तपाते है और तब मन-माया को कम कर, सुरत अंग को ऊपर उठाते हैं. इसी सुरत अंग में में प्रेम और प्रीत की उमंग छिपी होती है.
अपने भक्त की मालिक की मौज से हमेशा संभाल होती रहती है, बेशक उसका साधारण जीव की तरह ही पालन-पोषण होता है, वो इंद्री के घाट भी जायगा, उस पर सब तरह की संसारी बातों का असर भी होगा, पर मालिक उसे भोगो में बहने न देगा, डूबने से पहले ही बचा लिया जायगा. मालिक उसे दुनिया का हर तमाशा दिखलाता है, पर सिलसिला अंतर से लगाय रखता है. जो यदि यह सिलसिला टूट गया तो कुछ भी प्राप्त न होगा. भागों वाला है वह जीव जिसे सतगुरु का संग-सानिध्य प्राप्त होता है.
जब सुरत, शब्द को सुनती है तब मन की बढ़त स्वतः ही घटने लगती है. और ऐसा सुरत-शब्द अभ्यास से ही होगा. प्राणायाम बहुत जल्दी असर करता है, पर इसका प्रभाव दैहिक व मानसिक स्तरों तक ही सीमित होता है. इससे मन मजबूत ही होता है, न की उस स्तर तक नरम, जब की सुरत तक पहुँच बन सके. देखा की जीव प्राणायाम तो घंटों तक कर सकता है पर सुरत-शब्द अभ्यास पांच मिनट भी मुश्किल हो जाता है. जो सतगुरु जागा है वही सुरत को जगा सकता है, सिर्फ आँखें बंद कर के बैठने से तो सुरत सोएगी ही. पर जिनमें भक्ति है वह परमार्थ के वातावरण से कभी दूर नहीं रह सकता. और यह वातावरण सच्चे सत्संग में ही मिल सकता है, पुराने किस्से-कहानियों में नहीं. यूँ तो भीड़ बहुतेरे लगा लेते हैं, ये सब तमाशबीन है, सच्चा खोजी तो कोई विरला ही होता है.
“ खोजत फिरे साध गुरु जागा ”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
सच्चा अनुराग – खोजत फिरे साध गुरु जागा .
शब्द धार का सच्चा अनुराग, सुरत के अंतर में ही पैदा होता है. सुरत जो की मालिक की अंश है तो निज देश से उसके अंतर में जो धार आ रही है, उसे ग्रहण करने की सामर्थ भी सुरत में ही है. पर मन,माया और देह के गिलाफों की वजह से शब्द-धुन धार का असर मालूम नहीं देता, जैसे-जैसे मन, माया के ये गिलाफ या की खोल, सूक्ष्म और कमतर होते जाते है, उसी के अनुसार जीव में यह अनहद धार स्पष्ट नज़र आने लगती है.
तो जब तक सुरत में प्रेम नहीं जागा है, जो भी कार्यवाही भक्ति के नाम से की जाती है या की जा रही है, वह स्थाई नहीं हो सकती. सुरत में जो भक्ती, प्रेम और प्रीत से जागेगी, उद्धार तो उसी से होगा.
भक्ति करने की रीत तो हर स्तर पर समान ही है पर प्रीत की रीत निराली है. प्रीत तो जानवर भी अपने बच्चे से करते हैं और जान क्त दे देते हैं, पर परमार्थी इश्क की किस्म अलग है. ऐसे परमार्थी आशिक, तन-मन की सारी सामर्थ मालिक के चरणों में अर्पित करने की आस में ही जीते हैं. ऐसे ही सच्चे आशिकों की श्रेणी में से भक्त पैदा होते हैं. भक्ति में ही उमंग छिपी होती है. पर भक्ति भी जगत में अलग-अलग होती देखि, कोई माया की भक्ति में लीन, लोभ-मोह में फसां है, कोई ज्ञान की भक्ति में लगा है, जैसे वेदांती और वाचक ज्ञानी, जिन्होंने प्रेम की जड़ ही काट दी. इस तरह की सांसारिक भक्ति में उमंग नहीं होती बल्कि निज स्वार्थ छिपा होता है.
आसन लगाने या आँखे बंद कर के बैठ जाने से कुछ भी नहीं होगा. यह तो मुंगेरी लाल के हसीं सपनों की तरह ही है. इन बातो में लग कर परमार्थ का भाग नहीं जागता. जब तक मन निर्मल न होगा कुछ भी न होगा. सो सतगुरु पहले जीव को संसार की अग्नि में ही तपाते है और तब मन-माया को कम कर, सुरत अंग को ऊपर उठाते हैं. इसी सुरत अंग में में प्रेम और प्रीत की उमंग छिपी होती है.
अपने भक्त की मालिक की मौज से हमेशा संभाल होती रहती है, बेशक उसका साधारण जीव की तरह ही पालन-पोषण होता है, वो इंद्री के घाट भी जायगा, उस पर सब तरह की संसारी बातों का असर भी होगा, पर मालिक उसे भोगो में बहने न देगा, डूबने से पहले ही बचा लिया जायगा. मालिक उसे दुनिया का हर तमाशा दिखलाता है, पर सिलसिला अंतर से लगाय रखता है. जो यदि यह सिलसिला टूट गया तो कुछ भी प्राप्त न होगा. भागों वाला है वह जीव जिसे सतगुरु का संग-सानिध्य प्राप्त होता है.
जब सुरत, शब्द को सुनती है तब मन की बढ़त स्वतः ही घटने लगती है. और ऐसा सुरत-शब्द अभ्यास से ही होगा. प्राणायाम बहुत जल्दी असर करता है, पर इसका प्रभाव दैहिक व मानसिक स्तरों तक ही सीमित होता है. इससे मन मजबूत ही होता है, न की उस स्तर तक नरम, जब की सुरत तक पहुँच बन सके. देखा की जीव प्राणायाम तो घंटों तक कर सकता है पर सुरत-शब्द अभ्यास पांच मिनट भी मुश्किल हो जाता है. जो सतगुरु जागा है वही सुरत को जगा सकता है, सिर्फ आँखें बंद कर के बैठने से तो सुरत सोएगी ही. पर जिनमें भक्ति है वह परमार्थ के वातावरण से कभी दूर नहीं रह सकता. और यह वातावरण सच्चे सत्संग में ही मिल सकता है, पुराने किस्से-कहानियों में नहीं. यूँ तो भीड़ बहुतेरे लगा लेते हैं, ये सब तमाशबीन है, सच्चा खोजी तो कोई विरला ही होता है.
“ खोजत फिरे साध गुरु जागा ”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
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