Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... १७ 
संसारी बंधन तो बहुत हैं, पर मालिक की मौज भी है ..... 
हर जीवात्मा “सुरत” नहीं होती, पर जो शुभ में रत है, वह जगत में मालिक की अमानत है.
संसारी बंधन तो बहुत हैं, यदि म्रत्यु से पहले वे कट न पाए या ढीले न पड़े, तो वक़्त मौत के बहुत कष्ट उठाना पड़ता है. राधास्वामी दयाल ने, उन जीवों के लिए, जो दयाल की सरन में आये हैं, उनके संसारी बंध काटने में बड़ी सहूलियत कर रक्खी है. सुरत, जीवों के पास मालिक की अमानत है. अतः जीव को उचित है की मालिक की अपार दया और महिमा को याद कर के पूरी प्रीत और लगन के साथ मालिक के चरणों में लग जाए. जब तक जीव स्वयं ही, मोह के बन्धनों से मुक्ति की इच्छा द्रढ़ न रक्खेगा और प्रयत्नशील न होगा, मालिक भी बंध छुड़ाने में जीव की कोई मदद नहीं कर सकता. जीव को अवश्य है की सच्चाई के साथ, मालिक से इन बन्धनों और कर्मों से छूटने के पक्के इरादे के साथ प्रार्थना करता रहे – प्रति दिन. यदि सिर्फ दो मिनट भी जीव, दीन चित हो कर मालिक से दुआ मांगे, तो मदद तो अवश्य ही मिलेगी.
....“चरण कँवल रज धरहूँ सिर-माथे, सतगुरु रहें सदा संग-साथे.”
हमारे अंतःकरण पर, हमारी वासनाओं और कर्मों का अस्क छाया रहता है, जो वक़्त मौत के यही यमदूतों के रूप में हमारे सामने आते हैं. जिन्हें सामने देख कर जीव दीवाना हो जाता है, घबरा जाता है और नवों द्वार बहने लगते हैं. पर किसी से कुछ कह नहीं पता. जगत के बंधन जितने द्रढ़ होंगे, वक़्त मौत के कष्ट भी उतना ही अधिक होगा, क्यूंकि सब कुछ यहीं छूट रहा होता है.
कुछ लोगों का अकाल म्रत्यु के विषय में कहना की इसमें कोई कष्ट नहीं होता और कुछ पता नहीं चलता, बिलकुल गलत है. ऐसी अवस्था में जब स्थूल छूट जाता है तब भी सूक्ष्म और कारण देहें, आयु भोगने के लिए कायम रहती है. अकाल म्रत्यु होने पर अमूमन लोग पिशाच योनी में ही जाते हैं. पर आम तौर पर, आयु पूर्ण होने पर, कुदरती मौत होने पर ऐसा अंदेशा कम होता है.
बंधन जो भी, जिस घाट या स्तर का होता है, वह उस स्तर के नाश होने पर कट जाता है. बहुत से देह के बंधन तो दैहिक म्रत्यु होने पर ही कट जाते है. पर जो बंधन ज्यादा गहरा हुआ तो अगले जनम में भी अपना असर ले आएगा .
संतो का जीव के करम कटवाने का तरीका कुछ अलग है. संत कभी किसी से यह नहीं कहते की, ऐसा करो या ऐसा न करो. संत तो जीव को सिर्फ मालिक की मौज में रहना और जीना बताते है, और अंतर अभ्यास में जीव स्वंय पता है कि, अंतर का आनंद, भौतिक सुखों से कहीं बढ़ कर है. इस तरह संतो के बताय तरीके पर, विशवास की द्ढ़ता और सच्ची लगन और पूर्ण समर्पण के साथ चल कर जीव, जीते जी स्वंय अपने कर्मो के बोझ को कम होते हुए देखता जाता है, जिसका प्रभाव अभ्यासी जीव की सोच और व्यवहार में स्पष्ट रूप से नज़र आने लगता है. और एक दिन मालिक अपनी दया से जीव को सभी कर्मों से मुक्त कर देते हैं, यही मालिक का जीव से प्रेम, दया और मेहर है.
..... “काल अंग ज़ारी है, पर दया अति भारी है.”
संत कभी किसी जीव को किसी बुराई या व्यसन से दूर हटने का हुक्म नहीं सुनाते, वे तो बस जीव को, सत्संग में पुकारते हैं, संगत का बड़ा भारी असर होता है और धीरे-धीरे जीव स्वंय व्यसनों से दूर हो जाता है. यही संतों की रीत है, जो जगत से निराली है. भय-भ्रम से कभी कोई काज स्थाई नहीं होता, पर प्रेम की डगर पर चलने से जीवन बदल जाता है, यही संतों का मार्ग, रीत और प्रीत है, ... मालिक की मौज में राजी रहना.
प्रीत का हाल यह है कि, प्रीत, सुरत के जितने नजदीक के स्तर से होगी उतनी ही भरोसे की और ज्यादा देर तक कायम रहने वाली होगी. सुरत, जीव के पास मालिक की अमानत है, जीव तो बस अमानत का अमीन ही है. तो जीव को उचित है की कुल प्रीत को मालिक कुल के चरणों में अर्पित कर दे, इससे जो आनंद प्राप्त होगा वो जगत के हर सुख से कहीं बढ़ कर होगा.
जब मालिक, सुरत को प्रीत बख्शता है तब सब “निज प्यारे” लगने लगते है, प्रेमी जन का मन स्वतः ही कोमल हो जाता है.
मालिक की दया का कोई वारापार नहीं, जीव को उचित है की सब कुछ मालिक की मौज पर ही छोड़ दे, पर इसके लिए ज़रूरी है की स्वंय मालिक की मौज में सदा राजी रहे. राधास्वामी दयाल हैं जी .....
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

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