अंतर्यात्रा ..... ३
प्रीत का भाव शुद्ध
और प्रभाव भारी है, इस जगत में जीव जो भी सुख का अनुभव करता है, उसका कारन प्रीत
ही है. देखा जाय तो इस जीवन का कारन ही प्रीत है, इस तरह जीवन ही प्रीत है. पर
नश्वर है. पिंड देश का हर सुख क्षण भंगुर ही है. ब्रह्मांडीय स्तर का सुख बहुत
भारी है, पर महा-प्रलय या की मलय के वक़्त ब्रह्म-सृष्टि का भी लय हो जाता है. सभी
सुखों की यही अंतिम सीमा है. तो यदि सुरत, अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से प्रीत करे
तो वोह भी सदा के लिए अजर, अमर और अनंत आनंद की भागी हो जाय.
इस जगत में जहाँ
कहीं भी और जो भी सुख है, वह प्रीत से ही है. जीव जो कुछ भी कर्ता है वो प्रीत वश
ही करता है. ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से जहाँ भी ध्यान जाता है – जैसे, आँख से देखने
का सुख, नाक से खुशबू का सुख आदि सब प्रीत वश ही तो है. ऊपरी मंडलों का जो सुख व
आनंद है वह भी प्रीत के ही वश है. जीव जिस स्तर की प्रीत करता है, उसी स्तर के सुख
व आनंद को प्राप्त करता है. और उसके मिलने की आशा में जो इंतज़ार है उसमे भी अपना
एक अलग ही सुख है.
इस म्रत्यु लोक,
ब्रह्मा-विष्णु-शिव लोक और ब्रह्म सृष्टि, सभी की अवधि निर्धारित है, सभी काल के
बंधन में है, अंततः काल इन्हें लील ही लेता है. तब भला इनके सुखों का क्या मोल ?
यानि जगत और ब्रह्मांड के सभी सुख अंततः नाशमान ही है. देह और इन्द्रियां जिनसे कि
जीव जगत का रस और सुख पाता है, ये भी एक दिन थक कर मिट जाती है पर “सुरत” अविनाशी
है. सुरत का जगत में कभी लय नहीं होता. जगत में सुरत, काल और माया के बन्धनों में
फंसी है, पर जो चेत गई तो हर बंधन से मुक्त है.
उपलब्धि का ह्रास ही
दुःख है. काल जब देह को खता है और व्र्द्धावस्था में जब इन्द्रियों में रस लेने की
सामर्थ भी नही रह जाती, तब त्रष्णा और बढ़ जाती है. सुरत तो मूल तत्व, कुल का सार
और अजर-अमर है जैसे फूल में खुशबू , काष्ठ में अग्नि, ऐसे ही सुरत सभी में जान रूप
है. अगर वह उस अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से, जिसकी कि वह अंश है, प्रीत करे तो यह
प्रीत हमेशा कायम रह सकती है. और हमेशा बढ़ती रह सकती है. इसमें कभी कोई कमी नही आ
सकती, जो यदि प्रीत सच्ची है तो. मतलब यह कि, चाहे कोई भी तकलीफ क्यों न उठानी पड़े
या कैसी ही परिस्थितियां क्यों न हों पर “शब्द-डोर” कभी न छूटे, उसमे रस आये और
बढ़ता ही जाय.
समझदार और सयाना वही
मनुष्य है जो जगत के हर हाल और प्रभाव को परख कर और विचार व निर्णय के सथ सुरत के
द्वारा उस अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से प्रीत करे जिसका कभी ह्रास न होगा. यही
निर्वियोग-योग, सच्चा मिलाप और लीनता है. जिसे प्राप्त हो कर एक संत सुरत पूर्ण
होती है.
- राधा आदि
सुरत का नाम,
स्वामी
शब्द निज धाम.
सुरत शब्द और राधा स्वामी
दोनों
नाम एक कर जानी.
राधास्वामी-राधास्वामी.
सुरत
में बड़ा भारी आकर्षण है, यहाँ जगत में उसी की धार स्तर दर स्तर समाई हुई है और काम
कर रही है.
सुरत
अनमोल है, तन – मन मूल्यवान है. जब मन को कोई स्वाद चाहिए होता है तब वह तन को बा
ज़बर उठा कर वहां ले जाता है और धन से वो स्वाद प्राप्त कर लेता है. यह सब बाजारू
प्रीत है, मन जिसका मोल चुकता और स्वाद लेता रहता है, पर जब तन, मन और धन चुक जाता
है तब जो शेष रहता है वही “सुरत” है. इसका मेल जगत से नही पर “शब्द” से होगा.
तन, मन,
धन से जो प्रीत है, उसे धीरे-धीरे गुरु से प्रीत में बदल कर , संसारी प्रीत जिसमे
सुरत फसी हुई है, जैसे भी बन सके निकल आये तो सुरत के घाट पर चैतन्य का एक स्तर और
बढ़ जायगा, होते-होते यह समूह बन जायगा तो उसमे कितना भारी आकर्षण होगा और एक दिन
यह मालिक तक पहुंचा कर ही रहेगा. पर मुश्किल यह है कि, जीव से जगत की प्रीत छोड़ी
नही जाती. लेकिन जब गुरु से प्रीत लग गई और तन, मन, धन की मालिक के घर गुज़र है
नहीं, तो यह सब सतगुरु पर न्योछावर कर के फेंक दिए जाते है. सतगुरु से प्रीत – जगत
से न्यारी है.
- मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट.
झीने
बंधन चित्त के कटें नाम परताप.
जगत के
मोटे बंधन तो सतगुरु प्रीत से ही कटेंगे, उनके कटने का और कोई उपाय नहीं है. झीने
जो बंधन है वे बाद में नाम के प्रताप से कटेंगे. इन्ही झीने बन्धनों से मोटे बंधन
पैदा होते है.
·
संत
सतगुरु वक़्त से, यदि वे प्रकट रूप से हों, उनके मिल जाने पर और यदि विराजमान न हों
तो साध गुरु के सत्संग से ही, जीव में भक्ति का बीज पड़ता है. जो समझता है कि उसे
कुछ न मिला, यह भूल है. बीजा कभी बेकार नहीं जाता. मुख्य तो प्रीत का न पैद बीज ही
है, जिसकी दात तो सतगुरु की दया से ही मिलेगी.
अंतःकरण के स्तर पर जो चैतन्य राई सा मालूम देता है, आगे बढ़ने पर वही
पहाड़ बन जाता है. सुरत जब दसवें द्वार पर पहुंचेगी तब असीम आनंद को प्राप्त होगी.
- एक जनम गुरु भक्ति कर, जनम दुसरे नाम.
जनम
तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निज धाम.
राधास्वामी दयाल की दया,
राधास्वामी सदा सहाय.
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