अंतर्यात्रा ... १.
सुरत यानी शुभ में
रत.
प्रेम, इश्क और वफ़ा
ये वो गुण है जो मालिक हर सुरत में स्वतः ही पैदा कर देता है. तो एक सुरत को
आवश्यक है कि, मालिक की मौज में सदा राजी रहे और चेतन रहे और मालिक को भी यही
मंजूर और मौज है कि चेता कभी अचेत अवस्था में न रहे.
सुरत उस मालिक कुल
की अंश है जो स्वयं में आनंदमय, चैतन्य और प्रेमस्वरूप है. तो हर चेते हुए के लिए
यही मालिक कुल की बंदगी और इबादत है कि वो सदा चैतन्य और आनंदमय रहे, प्रेम स्वतः
ही उसके व्यवहार में प्रकट हो जायगा. इस तरह मालिक भी आनंदमय और सुरत भी आनंदमय –
यही मालिक को मंजूर है.
पर जीव और मालिक के
बीच कुछ परदे पड़े हुए है. अगर ये परदे दूर हो जाएँ तो कोई फर्क न रहे, सुरत का
आनंद – मालिक के आनंद में लीन हो जाय और सुरत – मालिक में.
इन्ही पर्दों की वजह
से जीव में अशांति, अतृप्ति और बेहोशी आ गयी है और इन्ही पर्दों को दूर करने के
लिए सुरत जगत में भेजी गयी है. चेत कभी अचेत रह ही नही सकता इसका चैतन्य रहना ही
आनंद है और पर्दों में रहना ही दुःख है.
सुरत स्वयं में सदा
चैतन्य ही है, माया की जड़ता के कारण ही थकती और नींद में है. वरना वो कभी न सोए.
जब तक मालिक के सानिध्य में सूरते, उसके प्रभाव में सचेत हो कर, मालिक के
आनंद में आनंदमय रही, तब तक किसी रचनात्मक कार्यवाही की कोई ज़रुरत ही न थी.
चैतन्य, प्रकाश कुल
का है और सदा ऊपर की ओर खिचता है, तो जिस स्तर से सारा प्रकाश ऊपर खिच गया, उस
स्तर पर अन्धकार व्याप गया. तब एक अलग किस्म की कार्यवाही की ज़रुरत हुई . इस तरह
काल और माया पैदा हुए.
प्रकाश के ऊपर की ओर
खिंचाव की प्रक्रिया में जो चैतन्य ऊपर न खिंच सका और नीचे छूटता गया वह अपने से
नीचे के चैतन्य की देह होता गया. इस तरह जो चैतन्य ऊपर खिंच गया वह खुद भी चैतन्य
और उसकी देह भी चैतन्य और जो चैतन्य नीचे रहा, उसके भाव यानी गुण में तो कोई कमी
नही आई पर भास् यानी प्रभाव में कमी आती
गयी. इस तरह प्रकाश के खिंचते-खिंचते अन्धकार हो गया. जहाँ से काल और माया की
उत्पत्ति होती है और सूक्ष्म व स्थूल जगत की कार्यवाही शुरू होती है.
प्रेम, इश्क और वफ़ा –
सुरत के खास गुण है और वह सदा चेतन, सत्
और आनंदस्वरूप है. जितने भी सुख-दुःख है वो तन और मन के है. सुरत तो सदा चैतन्य
गुण ही गाती है पर मन शिकवा-शिकायत करता है, शक-शुबहा करता है, भ्रमित होता और
शंका करता है. खुद दोष कर के दूसरो पर मढ़ देता है. जैसे बर्र के छत्ते में खुद ही
हाथ डाले और दोष बर्र पर कि उसने काट लिया. अतः सुरत को आवश्यक है की सचेत रहे और
मालिक को भी यही मंजूर है कि सुरत कभी अचेत अवस्था में न रहे.
सूक्ष्म और स्थूल
जगत की कार्यवाहियों में काल और माया की ताकते पूरी लीनता से लगी हुई है. तो जो
सुरते रूहानी रचना के वक़्त चेते में न आ सकी उनको चेते में लाने के लिए, काल और
माया के मेले में भेज दिया गया, कि अगर और किसी तरह से न सही तो जगत का तमाशा देख
कर ही सही, पर जागती तो रहे, क्यूंकि अगर जागती रहेंगी तो कभी न कभी हित की बात
सुन ही लेंगी. पर अगर जागती न रही तो किससे कहें और कौन सुने ? देह में सारी खटपट
छह चक्रों की है और मन तो है ही नटखट, ऊपर से माया महा ठगनी .
“ मन तो नटवा नाचे
रे ,
माया ठगनी हांसे रे.
”
जगत में जीव का हाल
तो यह है की विकारों की अग्नि में तो आठों पहर जागता रहे, पर यदि प्रेम अंग जगाओ
तो कठिन हो जाता है. पर देखा जाय तो यदि जीव में यह विकार भी न जागते तो वह अचेत
हो कर अन्धकार में ही रह जाता और कभी भी चेत न पाता. आग लगाने का काम इन्ही से
लिया जाता है, क्यूंकि आग लगाने का काम इन्ही जीवो से लिया जाता है, जहाँ आग ही न
हो वहां शीतलता कहाँ से आएगी ? इस तरह संत जीव को साधने से पहले जगत से थका देते
है. पर इससे यह नही समझ लेना चाहिए की जगत में थकने के नाम पर विकारों में नथने की
खुली छूट मिल गयी. यह बात कभी नही भूलनी है की जो कर्म किये है उनका फल भुगते बिना
उद्धार का मार्ग कभी न खुलेगा. और जितना यह मन जिद कर के सुख के पीछे भागेगा उतना
ही दंड भी कमाता जाएगा. पर मालिक की मौज में राजी रहना और विरूद्ध न जाना ही “दया”
में समाए रहना है. पर मन है की विरोध के घाट ही रहना चाहता है, ऐसे नही वैसे –
वैसे नही जैसे , बस इन्ही विचारों में फसा कर मन जीव को “दया” से दूर कर देता है.
तो क्या है उचित, और
अनुचित ? संतो का मत कहता है कि, वह कर्म पुण्य है जो सुरत के खिचाव को ऊपर की ओर
ले जाय, और जिससे उतार नीचे की दिशा में हो, वही पाप कर्म है. निचले घाटों के जीवो
को जगाना अवश्य है, यही वह क्रिया है जो संतो का कर्म है, प्रसंगवश कहता हूँ कि,
संत न तो कर्म करते हैं और न ही प्रतिक्रिया, उनके हिस्से में सिर्फ क्रिया ही है,
जो की वास्तव में दयाल की आज्ञा ही होती है.
तो जो एक बार जाग गया वो फिर कभी न
सोएगा, मालिक की ऐसी ही दया, मेहर और मौज है. जीव को पहले उतारा गया कि उसे चढ़ाया
जा सके और अब, चढ़ाया जाता है.
पहले जीव पाप की आस
करता है, फिर त्रास में तपता है, और तब जग से निरास हो कर मालिक की आस में जागता
है.
जब आया तो पाया कि,
जगत में तो भीड़ लगी है, मालिक के नाम का उपदेश चाहने वालो का रेला चला आता है, साथ
में ठेला और मेला भी, पर हुक्म मानने को कोई तैयार नही. हो भी कैसे, जब देने वाला
ही कोई नही. तो, दे तो वही न, जिसके पास हो, यही कारण है कि, पांच नाम के उपदेश के
वक़्त, पांचवे नाम के स्तर पर सब डगमगा जाते है और कुछ का कुछ .....
तो जब नाम सच्चा न
मिला तो धाम भी सच्चा न मिलेगा. देखता हूँ कि मदारी झोली से डमरू निकालता है और
नटवा बन्दर नाचता है, डमरू बंद, तो नाच भी बंद. लुटा-पिटा नटवा फिर एक कोने में,
दिशा हीन, अगले डमरू के इंतज़ार में. वास्तव में हुक्म मालिक का मांगने और लेने
वाला कोई नज़र में नही आता, जिसको हुक्म दिया जाय, सभी बस नाचने में ही मगन है.
दरअसल हम सभी मन के घाट पर बैठे है. जो वास्तव में “संत सत्गुरु” प्रगट हो, तो वो
भी जीव को उसके भौतिक बन्धनों और आत्मिक स्थिति के अनुसार ही उपदेश करते है, आम
तौर से सीधे हुक्म नही थमा देते. जीव की हालत , जगत में इस कदर बिगड़ चुकी है कि
माया की मिलावट तो उसे भली लगती है, पर सत् को सच में सह पाना उसे कठिन हो जाता
है. रसातल में रस मालूम पड़ता है और हितकारी – बैरी .....
राधास्वामी सदा सहाय
.....
राधास्वामी जी .
राधास्वामी हैरिटेज
- संतमत विश्वविद्द्यालय की स्थापना के प्रति
समर्पित.
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home