अंतर्यात्रा ..... २
चैतन्य
पूँजी – राधास्वामी नाम.
जीव जितनी चैतन्य
शक्ति ले कर जगत में आता है, वही उसकी पूँजी है. और इसी के अनुसार जीव, मनुष्य चोले में बैठ कर, अंतःकरण
के घाट से जगत की सभी कार्यवाही कर रहा है. अंतःकरण का प्रभाव क्षेत्र बहुत
विस्तृत है, और जीव अपनी इसी चैतन्य पूंजी के अनुसार, इसके ओर और छोर यानि सबसे
ऊंचे और सबसे निचले स्तरों के बीच कहीं पर ठहराव पाता है. जीवन काल में यह
चैतन्यता, कर्मो के वेग और प्रारब्ध कर्म आदि में लगातार खर्च होती रहती है. जितनी
ज्यादा खर्च होती है, उतनी ही कमी आती जाती है.
यदि इस चैतन्य पूँजी
को स्थिर रखने का प्रयास किया जाय और संभाल की जाय, पर इसकी बढ़होतरी या की व्रद्धी
का उपाय न किया जाय, तो मनुष्य चोला तो अन्य मतों के अनुसार शुभ कर्म कर के भी
दुबारा प्राप्त किया जा सकता है, पर पुनर्जन्म चक्र से मुक्ति नही हो सकती. तो यह
असल परमार्थ नही है. इस तरह तो यह जनम जुए में हार देने के सामान है, और यदि पूंजी
कम हो गयी तो जीव नर से पशु योनी में भी जा सकता है. असल परमार्थ तो यह है कि जीव
जन्म – मरन के चक्र से ही छूट जाय.
संतो के सानिध्य और
उनकी हिदायतों पर अमल करके, अंतर में बा-होश जाने से ही जीव चौरासी के फेर से छूट
सकता है. यम की त्रास और लेखा मिट जाता है और काल से नाता टूट जाता है. सिर्फ शेष
कर्म ही इतने शेष रह जाने चाहिए कि नर चोला मिले और कर्म कट जाएं, क्यूंकि अंतर की
कमाई के लिए तो नर देह ही निर्धारित है.
उन जीवो को भी जो
संतो के सानिध्य में तो आय, पर भाव न ला सके, उनके भी उद्धार का मार्ग संतो ने दया
से जारी किया है. चाहे वे सत्संग में फ़ौरन न भी लगाय ज सके, पर उन सभी के भाग बढ़
जाते है और किसी स्तर के सत्संग में देर सबेर लग ही जाते है. संतो को मालिक ने, जीव
की सुरत को प्रलय और मलय से एक घाट ऊपर उठाने की दात बक्शी है, जो संतो की दया पर
निर्भर होती है.
स्वतः संत और जागे
संत का चेता सदा ऊपर के घाट पर ही रहता है, पर उनके भास् से नीचे के सभी घाट चक्र
रोशन रहते है. और उससे नर देह में रहते हुए, अंतःकरण के घाट पर सभी काम स्वतः ही
पूर्ण होते रहते है. और अति आवश्यक स्थिति में उस चेत से जो ऊपर के घाट पर जागता
है, मदद लेते है. अगर वे अपने चेते के साथ नीचे के घाटों पर आ भी जाएं तो ये देह
उसी क्षण ढेर हो जाय, इन्द्रियाँ दरक जाएं और शिराएं फट जाएं. और अंतर, चैतन्य के
नूर में समा जाय. संतो का भास् ऐसे काम करता है जैसे मैग्नीफाइन ग्लास से सूरज की
किरणों को इकट्ठा कर के कागज़ में आग लग जाती है, दूसरी ओर साधारण जीवो की स्थिति
एक लैंप या दिए की तरह है, जिसकी रोशनी जमा करने से कभी आग नहीं लगती और जहाँ
ज़रुरत होती है उसे उठा कर वहां ले जाते है.
ये नर चोला धारण कर
के जीव जब अंतःकरण के घाट पर बैठ कर, इन्द्रियों और देह के माध्यम से कार्यवाही
कर्ता है, तब जितनी भी कामनाए है, सभी जाग उठती है. पर विकारी अंग से दूर रहना ही
चाहिए. अक्सर संतों ने अल्पच्छ नाम के एक पक्षी का ज़िक्र किया है, जो की आकाश में
ही अंडा देता और उसे सेह भी लेता है और भूमि पर पहुँचने से पहले ही अंडे में से
बच्चा निकल कर वापस आकाश में उड़ जाता है. तो जीव को आवश्यक है कि ऐसे ही विकारी
अंग से बच कर, इन्द्रियों या देहिक स्तर पर विकार के प्रकट होने से पूर्व ही, अंतर
की ओर लौट पड़े.
राधास्वामी मत में
सतगुरु वक़्त की ही महिमा बतलाई गई है. तो जिसने भी साध-संत को एक बार भी प्रीत की
नज़र से देखा और ऎसी द्रष्टी से छिन भर के लिए भी उनके शब्द स्वरुप को जाना और उस
पर ठहरा, तो उसी का काम बन गया. जो एक छिन के लिए भी जीव ने शब्द में रस को पा
लिया तो उसका जनम सुफल हो गया. क्यूंकि जहाँ तक उसकी सुरत अंतर में एक बार भी सचेत
पहुंची तो वहां तक वो ज़रूर ही पहुंचाया जायगा. जो एक बार भी सुरत उठी और शब्द में
रस को पा लिया तो, फिर काल और यम के बस में नही रहती. इस तरह जो प्रीत सतगुरु में
लगी तो कल्प का काम अल्प में हो जाता है. और जीव पर उद्धार की मोहर लग जाती है –
अब वह सुरत है . पर सतगुरु वक़्त, सच्चा और पूरा चाहिए.
सच तो यह है की दयाल
सतगुरु रूप धर नर देह में आप ही आते है और आप ही उद्धार करते है, पर जिस पर ऐसी
द्रष्टि डाली की वह ठहर गई तो वही गुरमुख है. गुरमुख की बढ़ाई भला कौन कर सकता है.
बड़े-बड़े उभरे उस
संगा,
गुरमुख है इन सब से
चंगा.
- वह हर दशा और दिशा में मगन रहता है, मालिक की मौज
में राजी.
पर जिसकी ऐसी द्रष्टि नही है वह अभी उम्मीदवार ही है, इससे भला क्या
लाभ की पहले तो अपने भौतिक कामो को महत्त्व दिया और फिर जब कुछ समय मिला तो उसे
काटने सत्संग में आ बैठे. पर ये भी बे मतलब नही, पर इनकी स्थिति बस इतनी ही है की
जैसे एक चिंगारी जली और अगले ही पल राख में दब गई.
राधास्वामी नाम और राधास्वामी मत एक ही है . और यही संतो का मत, संतमत है. बहुत से लोग है जो
की सतनाम की टेक बांध कर, राधास्वामी नाम को मात्र रस्मी तौर पर इस्तेमाल कर रहे
है. यह तो ठीक है की जो सत्तलोक तक पहुंचा वह जनम-मरण से न्यारा हुआ, पर पूरा उद्धार न हुआ, सत्तलोक तक ही रहा आगे न बढ़
सका. जब तक राधास्वामी दयाल ने स्वयं नर देह में गुरु रूप धारण कर के धुर धाम
राधास्वामी का भेद न खोला, सभी सुरतो का बस यही ठिकान था. पर जब अलख, अगम के परदे
उठा दिए तो मकसद यही था कि, सुरत का अब पूरा और मुकम्मल उद्धार ही मंज़ूर है, अधूरा
नही. यही सच्ची और पूरी मुक्ति है, वर्ना तो बात अधूरी है.
तो जब राधास्वामी नाम मालूम होगा तब क्या सतनाम न मालूम होगा ? तो
जिसने राधास्वामी नाम को समझा , उसने सतनाम भी समझ लिया. पर जिसने सतनाम की टेक
बांध ली , उसे राधास्वामी नाम न मिला. अलख और अगम को लांघे बिना कोई भी राधास्वामी
नाम तक नही पहुँच सकता.
- इन तीनो
में मेरा रूप,
यहाँ से
उतरी कला अनूप.
पञ्च शब्द और सतनाम
घोटने से कभी राधास्वामी नाम और धाम नही मिल सकता. राधास्वामी दयाल का ईष्ट पक्का
किये बिना और अलख, अगम को साधे बिना अब की गई हर कार्यवाही अधूरी है, इससे कभी
सच्चा और पूरा उद्धार न होगा.
- राधास्वामी नाम जो गावे सोई तरे, काल क्लेश सब
नाश सुख पावे सब दुःख हरे.
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