Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... २५ 

सुरत जो बहती जग की धार, या में दुःख अपार .....

जगत का कोई भी काम, बिना धार के ऊपर से नीचे की ओर बहे हो नही सकता. यही जग में बहना है. संसार में सुरत मन का अहम ओढ़ कर, मन की ही गति चल पड़ी है. 
संसार में जीव जो भी कार्यवाही अपने जीवन के लिए यानि अपने शरीर, घर-परिवार, कुटुंब और समाज के हित में कर रहा है, सब जग की धार ही है. जगत का कोई भी काम, बिना धार के ऊपर से नीचे उतरे या अंतर से बाहर आये बिना नही हो सकता.
मन काल का रचा हुआ है और काया माया की रची हुई है. काल, सुरत को नहीं बना सकता. इसी से सुरत को मन का अहम दे कर, काल, जगत के सब रस ले रह है. और सुरत भी जगत में मन-माया के रंग में रंग गई है. ऊपर से काल के अंश, मन ने भय व भ्रम का ऐसा फंदा डाला है की सुरत जगत में बेसुध-अचेत हुई डोल रही है, जिसे ज़रा भी होश नहीं की वोह कहाँ से आई है, किसकी अंश है और जाना कहां है. असल में माया-काल, सुरत-शब्द की छीज ही है, कहने को तो छीज कह दिया पर इनमें इतनी सामर्थ है की इन्होंने तीन लोक – पिंड, अंड और ब्रह्मांड – रच डाले हैं.
अब सुरत जो मन-माया से कुछ हद तक उदासीन हो और राई-रत्ती भर भी जागे तो सतगुरु की दया जीय में भक्ति का बीजा बो दे. इसमें कोई जबर्दस्ती नहीं की जा सकती, यदि जोर दिया गया तो जो बहिर्मुखी ताकत, जो “नाम” के प्रताप से अंतर के स्तर पर ख़त्म की जा सकती थी, वो अंतर में ही दबी रह जायेगी और निश्चित ही एक दिन गुरुत्वाकर्षण gravitation के सिधांत के अनुसार नीचे के स्तरों पर गिरा देगी. इस घाट पर बुद्धि द्वारा कोई काम नहीं बनेगा, हमे कोई मत परिवर्तन नहीं करना है. बल्कि अपनी प्रक्रति ही बदलनी होती है. तब ही रूहानी स्तर पर बदलाव Spiritual conversion सुम्भव होता है. Impulse या प्रेरणा का अंतर में अहसास ज़रूरी है. जीव का रोग या मोह, symptomatic treatment बाहरी लक्षण देख कर इलाज करने से अच्छा नहीं हो सकता. Constitutional treatment यानि जीव अपनी प्रक्रति में बदलाव ला कर, आत्मिक पुष्टता या सामर्थ प्राप्त कर सकता है.
संतमत के ये सिद्धांत कोरे नहीं है, ज़रुरत है इन्हें सीखने और सिखाने की, संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के संकल्प के पीछे यही अवधारणा है. – जगत में सद्भावना का और मानव की दिमागी, बौधिक, मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों का विकास. जिसे “नाम” यानि “शब्द की धुन-धार” से चमकाया जा सकता है ..... यही भविष्य की कुंजी है .
तन और मन, सुरत को लासे बैठे हैं, अपने “मै” को “शब्द-धार” में डुबो कर ही सुरत अंग प्राप्त किया जा सकता है. जब सुरत किसी कदर ढीली पड़ेगी तब ही वह उस शब्द धार से , जो कि अंतर में ऊपरी मंडलों से आ रही है, एकरस हो पाएगी और सतगुरु की साध में आगे बढ़ पाएगी. शब्द धार के निकट आना ही सतगुरु की साध में बढ़ना है.
“ शब्द में तन मन दौनो गार,
सुरत से होजा सतगुरु लार. ”
तब जगत की माया से सहज वैराग हो कर अनहद नाद प्यारा लगने लगेगा और मालिक कुल के चरणों में सहज अनुराग पैदा हो जाएगा. शब्द ही पुरुष है, जिसकी तरफ सुरत का लगाव हमेशा से है. संसार के मतों-सम्प्रदायों की परमार्थी कार्यवाहियों में सुरत अंग शामिल नहीं है और सुरत का जागना या चेतना भी आसान नहीं है. जब इन्द्रियाँ थकित और मन गलित होगा तब जगत की अधिकतर सभी कामनाएं और आशाएं भुन कर अपना बीज खो देंगी.
“इन्द्री थकित गलित मन हुआ, आसा सकल भुनी.”
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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