अंतर्यात्रा ..... २३
अखंड चैतन्य .....(१)
चैतन्य की ही उपस्थिति और स्थिति, ऊपर से नीचे तक मौजूद है और जो कुछ भी है, वह उसी के होने से है. अंतर के अंतर में भी चैतन्य अखंड है, फर्क सिर्फ अधिकता और न्यूनता का ही है. जिस स्तर पर न्यूनता है वहां मन-माया उपस्थित हैं, जिसकी वजह से ही स्तरों की भिन्नता का आभास होता है. जो यदि चैतन्य, अंतर से अखंड न होता तो फिर कभी भी जुड़ नहीं सकता था, यह “सत्य” स्वंम सत्य, स्वंम सिद्ध और स्वंम ही प्रमाण है.
चैतन्य, स्वंम सिद्ध, सदा चैतन्य, सब से बढ़ कर और अधिक से भी अधिक है. उसको सबका ज्ञान है , यानि सब के सब कुछ से, चैतन्य वाकिफ है. जिस स्तर पर चैतन्य की न्यूनता है, वह अपने से अधिक से तब वाकिफ होगा या जानेगा, जब की वह अधिक के इतना नजदीक आये की बीच में कुछ भी शेष न रहे.
यदि दो चैतन्य शक्तियां बिलकुल बराबर स्तर की हों यानि उनमे से कोई अधिक या कम न हो, तो वे तदरूप हो जायेंगी, एक-दूसरे में मिल जायेंगी, उनका कोई अलग वजूद ही न रहेगा न होगा. बिना अधिकता और न्यूनता के कोई भी रचना नहीं हो सकती, चैतन्य स्वंम में ही अडोल, अबोल और अकर्ता हो कर भी सब का कारण कर्ता है.
फिर एक स्तर पर न्यूनता इतनी अधिक हो गई है किन तो उससे आगे चैतन्य उतर सकता है और न ही वहां कोई हरकत ही है. इस तरह वह स्तर भी अडोल और अबोल है पर Negative Pole या तलहटी है. इसके चारों ओर इसका बहस रुपी मंडल है. इस तरह Negative Pole से ले कर Positive Pole यानि तलहटी से ले कर चैतन्य के अधिकतम स्तर तक, रचना हर स्तर पर मंडलों में कायम है. तलहटी से आगे चल कर न्यूनता इतनी अधिक बढ़ गई है की उसका बहाव बाहार्मुख हो गया है. इसी बिंदु से अशांति, अस्पष्टता, भय और भ्रम आदि नकारात्मकताए पैदा हुई. और फिर उसको पूरा करने के लिए “कर्म” पैदा हुआ, पर नकारात्मकता और कर्म का साथ दो ऐसी बातों का है जो कभी तदरूप यानि मिल कर एक नहीं हो सकती. इसी कारन जगत में कर्म हमेशा प्रधान बना रहता है. और कर्मों से कभी मुक्ति नहीं मिलती. जो चौरासी जून का कारन बनता है, चौरासी में फंसना ही नकारात्मकता में डूबना है और यही नर्क है.
चैतन्य के स्वंम सिद्ध स्तर को छोड़ कर जो की सदा चैतन्य का आदि और अनंत भण्डार है, कुल रचना में चैतन्य के स्तर दर स्तर मंडल बंधे हुए हैं. जिनके चारो ओर, उनकी तुलना में जो कम चैतन्य के मंडल है वे घुमते याकी चक्कर काटते रहते हैं. और यही गुण कुल रचना का मूल आधार है, जो की हर पिंड, इंसान, हैवान यानि कुल जीव जगत, वनस्पति और जड़ पदार्थों, यहाँ तक की परमाणु तक में पाया जाता है.
ऊपरी मंडलों में भी यही हाल है. जिन लोकों या ग्रहों को सूरज से चैतन्य प्राप्त होती है वही सूर्य का मंडल या सौर्य-मंडल कहलाता है. ये सभी गृह अपनी धुरी पर घुमते हुए, अपने सूर्य का चक्कर काटते रहते हैं, जैसा की हम प्रथ्वी और अपने सूर्य के सम्बन्ध में पाते हैं. इसी तरह कुल रचना में Rotation यानि अपनी धुरी पर घूमना और Revolution यानि दूसरे की परिक्रमा करना पाया जाता है. ऐसा चैतन्यता के न्यून व अधिक स्तरों की वज़ह से है. इंसान भी आपे यानि अहम् भाव के ही चारों ओर घूमता हुआ ही जगत में डोलता फिरता है, और एक दिन जब थक हार जाता है, तब अपने से बड़े चैतन्य की खोज में निकल पड़ता है – खोजत फिरे साध गुरु जागा .....
सामान्य दिनचर्या में भी हम इस बात को देख समझ सकते हैं, जब की हम अपने दिन भर के कामो से थक जाते हैं, तब नींद की आगोश में जा कर फिर से अपनी चुकी हुई चैतन्य सामर्थ को, स्वप्नावस्था में ऊपरी सूक्ष्म मंडलों में जा कर प्राप्त करते है और इस तरह लौट कर जाग्रत अवस्था में आ कर फिर से चैतन्य हो जाते है. यही मनुष्य में rotation और revolution की स्थिति है.
अधिक चैतन्य का स्तर, अपने से कम चैतन्य के स्तर को अपनी ओर खींचता ही है. यह आकर्षण हर स्तर में होता ही है, वेरना रचना टिक ही नहीं सकती थी और न ही उसकी संभाल संभव हो पाती. यह आकर्षण ही प्रेम है. ब्रह्माण्ड में well-pronounced individualities यानी वयकतियाँ या व्यक्तित्व नहीं है. वहां जोत निरंजन रलियाँ करते हैं. इसे इस तरह समझें कि, यहाँ जगत में जो प्रेम की आदर्श स्थितियां हैं जैसे, माता व पुत्र का प्रेम या पति-पत्नी का प्रेम, तो इनमे भी प्रीत राली-मिली नहीं है. हाँ, सांसारिक सम्बंधो के अनुसार कुछ हद तक तो प्रीत का अंश है, बाकी मसलों में उनमे भी यह प्रीत नज़र नहीं आती. यदि अंतःकरण के स्तर पर देखा जाय तो यह फर्क साफ़ तौर पर नज़र आता है.
आदि से ही जगत की सभी व्यवस्थाओं में समय के अनुसार परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव किया जाता रह है, वरना संस्कारों और अधिकारों में कभी परिवर्तन न आ पता. कलियुग में त्रेता या सतयुग के धर्म और संस्कार फिर से व्यवहारिक नहीं हो सकते. उन्हें फिर से व्यवहारिक बनाने के लिए शोर मचाना और लोगों को बरगलाना, मात्र ठग विद्या और पाखण्ड ही है. बल, पौरुष और संकल्प शक्ति के मतों का समय कब का गुज़र चुका, जो यदि होता तो जीव “संतमत” का अधिकारी कैसे बन पाता ? “संतमत” में बल, पौरुष और कल्पनाओं का कोई काम नहीं, यह एक व्यवहारिक मत है. सुरत-शब्द अभ्यास ही संतमत का मुख्य अंग है. शब्द से भी पहले सुरत को जानना ज़रूरी है, यानी सुरत का असली रूप क्या है और अब वह किस हालत में है ? “सुरत-शब्द” ही मात्र ऐसा अभ्यास है जिसके द्वारा जीव अखंड चैतन्य के धुर स्तर को प्राप्त हो सकता है, यही परम आनंद का धाम, आव-गमन से मुक्ति का प्रमाण है.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी ,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित
अखंड चैतन्य .....(१)
चैतन्य की ही उपस्थिति और स्थिति, ऊपर से नीचे तक मौजूद है और जो कुछ भी है, वह उसी के होने से है. अंतर के अंतर में भी चैतन्य अखंड है, फर्क सिर्फ अधिकता और न्यूनता का ही है. जिस स्तर पर न्यूनता है वहां मन-माया उपस्थित हैं, जिसकी वजह से ही स्तरों की भिन्नता का आभास होता है. जो यदि चैतन्य, अंतर से अखंड न होता तो फिर कभी भी जुड़ नहीं सकता था, यह “सत्य” स्वंम सत्य, स्वंम सिद्ध और स्वंम ही प्रमाण है.
चैतन्य, स्वंम सिद्ध, सदा चैतन्य, सब से बढ़ कर और अधिक से भी अधिक है. उसको सबका ज्ञान है , यानि सब के सब कुछ से, चैतन्य वाकिफ है. जिस स्तर पर चैतन्य की न्यूनता है, वह अपने से अधिक से तब वाकिफ होगा या जानेगा, जब की वह अधिक के इतना नजदीक आये की बीच में कुछ भी शेष न रहे.
यदि दो चैतन्य शक्तियां बिलकुल बराबर स्तर की हों यानि उनमे से कोई अधिक या कम न हो, तो वे तदरूप हो जायेंगी, एक-दूसरे में मिल जायेंगी, उनका कोई अलग वजूद ही न रहेगा न होगा. बिना अधिकता और न्यूनता के कोई भी रचना नहीं हो सकती, चैतन्य स्वंम में ही अडोल, अबोल और अकर्ता हो कर भी सब का कारण कर्ता है.
फिर एक स्तर पर न्यूनता इतनी अधिक हो गई है किन तो उससे आगे चैतन्य उतर सकता है और न ही वहां कोई हरकत ही है. इस तरह वह स्तर भी अडोल और अबोल है पर Negative Pole या तलहटी है. इसके चारों ओर इसका बहस रुपी मंडल है. इस तरह Negative Pole से ले कर Positive Pole यानि तलहटी से ले कर चैतन्य के अधिकतम स्तर तक, रचना हर स्तर पर मंडलों में कायम है. तलहटी से आगे चल कर न्यूनता इतनी अधिक बढ़ गई है की उसका बहाव बाहार्मुख हो गया है. इसी बिंदु से अशांति, अस्पष्टता, भय और भ्रम आदि नकारात्मकताए पैदा हुई. और फिर उसको पूरा करने के लिए “कर्म” पैदा हुआ, पर नकारात्मकता और कर्म का साथ दो ऐसी बातों का है जो कभी तदरूप यानि मिल कर एक नहीं हो सकती. इसी कारन जगत में कर्म हमेशा प्रधान बना रहता है. और कर्मों से कभी मुक्ति नहीं मिलती. जो चौरासी जून का कारन बनता है, चौरासी में फंसना ही नकारात्मकता में डूबना है और यही नर्क है.
चैतन्य के स्वंम सिद्ध स्तर को छोड़ कर जो की सदा चैतन्य का आदि और अनंत भण्डार है, कुल रचना में चैतन्य के स्तर दर स्तर मंडल बंधे हुए हैं. जिनके चारो ओर, उनकी तुलना में जो कम चैतन्य के मंडल है वे घुमते याकी चक्कर काटते रहते हैं. और यही गुण कुल रचना का मूल आधार है, जो की हर पिंड, इंसान, हैवान यानि कुल जीव जगत, वनस्पति और जड़ पदार्थों, यहाँ तक की परमाणु तक में पाया जाता है.
ऊपरी मंडलों में भी यही हाल है. जिन लोकों या ग्रहों को सूरज से चैतन्य प्राप्त होती है वही सूर्य का मंडल या सौर्य-मंडल कहलाता है. ये सभी गृह अपनी धुरी पर घुमते हुए, अपने सूर्य का चक्कर काटते रहते हैं, जैसा की हम प्रथ्वी और अपने सूर्य के सम्बन्ध में पाते हैं. इसी तरह कुल रचना में Rotation यानि अपनी धुरी पर घूमना और Revolution यानि दूसरे की परिक्रमा करना पाया जाता है. ऐसा चैतन्यता के न्यून व अधिक स्तरों की वज़ह से है. इंसान भी आपे यानि अहम् भाव के ही चारों ओर घूमता हुआ ही जगत में डोलता फिरता है, और एक दिन जब थक हार जाता है, तब अपने से बड़े चैतन्य की खोज में निकल पड़ता है – खोजत फिरे साध गुरु जागा .....
सामान्य दिनचर्या में भी हम इस बात को देख समझ सकते हैं, जब की हम अपने दिन भर के कामो से थक जाते हैं, तब नींद की आगोश में जा कर फिर से अपनी चुकी हुई चैतन्य सामर्थ को, स्वप्नावस्था में ऊपरी सूक्ष्म मंडलों में जा कर प्राप्त करते है और इस तरह लौट कर जाग्रत अवस्था में आ कर फिर से चैतन्य हो जाते है. यही मनुष्य में rotation और revolution की स्थिति है.
अधिक चैतन्य का स्तर, अपने से कम चैतन्य के स्तर को अपनी ओर खींचता ही है. यह आकर्षण हर स्तर में होता ही है, वेरना रचना टिक ही नहीं सकती थी और न ही उसकी संभाल संभव हो पाती. यह आकर्षण ही प्रेम है. ब्रह्माण्ड में well-pronounced individualities यानी वयकतियाँ या व्यक्तित्व नहीं है. वहां जोत निरंजन रलियाँ करते हैं. इसे इस तरह समझें कि, यहाँ जगत में जो प्रेम की आदर्श स्थितियां हैं जैसे, माता व पुत्र का प्रेम या पति-पत्नी का प्रेम, तो इनमे भी प्रीत राली-मिली नहीं है. हाँ, सांसारिक सम्बंधो के अनुसार कुछ हद तक तो प्रीत का अंश है, बाकी मसलों में उनमे भी यह प्रीत नज़र नहीं आती. यदि अंतःकरण के स्तर पर देखा जाय तो यह फर्क साफ़ तौर पर नज़र आता है.
आदि से ही जगत की सभी व्यवस्थाओं में समय के अनुसार परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव किया जाता रह है, वरना संस्कारों और अधिकारों में कभी परिवर्तन न आ पता. कलियुग में त्रेता या सतयुग के धर्म और संस्कार फिर से व्यवहारिक नहीं हो सकते. उन्हें फिर से व्यवहारिक बनाने के लिए शोर मचाना और लोगों को बरगलाना, मात्र ठग विद्या और पाखण्ड ही है. बल, पौरुष और संकल्प शक्ति के मतों का समय कब का गुज़र चुका, जो यदि होता तो जीव “संतमत” का अधिकारी कैसे बन पाता ? “संतमत” में बल, पौरुष और कल्पनाओं का कोई काम नहीं, यह एक व्यवहारिक मत है. सुरत-शब्द अभ्यास ही संतमत का मुख्य अंग है. शब्द से भी पहले सुरत को जानना ज़रूरी है, यानी सुरत का असली रूप क्या है और अब वह किस हालत में है ? “सुरत-शब्द” ही मात्र ऐसा अभ्यास है जिसके द्वारा जीव अखंड चैतन्य के धुर स्तर को प्राप्त हो सकता है, यही परम आनंद का धाम, आव-गमन से मुक्ति का प्रमाण है.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी ,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित
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