Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... ६
जब तक मन में संसार की वासनाए भरी है, मन शैतान है, इस शैतान का बड़ा ही भयानक रूप है, कुरूप है. स्वरुप तो सिर्फ मालिक का है, जो कुछ भी जगत में सुन्दरता दिखाई पड़ती है, वही मालिक की दया और सुरत के अंश से है. जो जीव पर मालिक की दया न हो तो सुन्दरता भी, काल अंश मन के वसीले से कुरूप ही दिखेगी. और, कुरूपता और विक्रति भली मालूम देती है. इस तरह सुरत पर जगत में माया की इतनी तहे जम गई है कि, जगत में सुरत का स्वरुप अति कठोर हो जय है और उतार निरंतर नीचे की ओर जारी है. तो जब तक जीव अंतर की दिशा में यात्रा न करेगा और ऊपर न उठेगा, तो अंत निश्चित ही रसातल ही है.
जो जीव चेते और इस भारी बोझ से छुटकारा पाना चाहे तो उसे अवश्य है की, जो उपदेश, वचन और हिदायत सतगुरु फरमाते है, उन्हें पूरे ध्यान से सुने और अपनाए तभी उसके हिये का सिंगार होगा.
“ गुरु के वचन मेरे हिये सिंगारी ” ...
इस शरीर का हिया (चित) – अंतःकरण है पर वहां तो घोर अँधेरा छाया हुआ है और भारी शोर मचा हुआ है. जीव जब सतगुरु के वचन, हिदायते और शब्द को अंतर से ग्रहण करता है, जो कि सुरत का हिया है तब सुरत तीसरे तिल पर पहुँच कर, शब्द-डोर को साध पाने के योग्य बन पाती है, यही सुरत का वास्तविक और सच्चा श्रिंगार है और तीसरा हिया त्रिकुटी में है.
बानी में कहा है –
हिया त्रिकुटी मांही – यहाँ पहुँच कर सुरत, काल के पंजो यानी भय व भ्रमों से मुक्त हो कर और हर विकार से रहित हो कर खालिस, शुद्ध और शफ्फ़ाफ़ हो जाती है.
शीश महल सम निर्मल जान – इस तरह पूर्ण सिंगार हो कर सुरत जब सत्तलोक में पहुंचेगी तब सत् पुरुष उसे स्वीकार करता है और सुरत सत् पुरुष संग ब्याह कर सुहागिन बनती है. यही सुरत-प्यारी है.
गुरु स्वरुप दिन रैन सम्हारी – त्रिकुटी पर सुरत को सतगुरु के साकार रूप के दर्शन होते है और सत्तलोक में सतगुरु के स्वरुप का वासा है.
गुरु का संग कर छिन छिन प्यारी – सतगुरु के स्वरुप का ध्यान, हर पल - हर छिन और हर सुलभ अवसर पर संग-साथ करते रहना चाहिए. सतगुरु के रूप से  बेशक दूरी हो पर संग – नाम, स्वरुप और शब्द के ध्यान के द्वारा होता है. जिसका शब्द खुल गया वह तो विरला है, फिर चाहें नाम वर्णात्मक ही हो पर स्वरुप का ध्यान हर वक़्त हिय में बसा रहना चाहिए. जब हम ज़रूरी कामों में लगे होते है तब भी नाम के भास् में तो बने ही रह सकते हैं. नाम का ऐसा अभ्यास हो कि सोते वक़्त भी अंतर से न बिसरे.
जीव का मन तो चोरों के साथ मिला है, और चोर हैं की नौ द्वारों से जीव की हर पूँजी चुराय लिए जा रहे हैं. तो जब भाग से संत मिल जायं और भक्ति की कमाई से नाम की प्राप्ति हो तब संत ही संतरी बन कर जीव की आत्मिक कमाई की रक्षा करते हैं, तब सुरत की कमाई में कोई कमी नहीं आती और वोह घट-भीतर दौड़ी चली जाती है और लगाम सतगुरु के हाथों में होती है.
-     घुड़ दौड़ करूँ मै घाट में .
  मुझे मिले सिपाही संत री ..
राधास्वामी जी

राधास्वामी हेरिटेज 

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