अंतर्यात्रा ..... ९
सतगुरु दीजे दात
प्रेम की .....
सिर्फ सुरत ही
,मालिक से प्रेम कर सकती है, क्यूंकि सुरत ही मालिक का अंश है. और अंश को अपने
अंशी से प्रेम करने का पूरा हक है. “सुरत व शब्द” और “राधा व स्वामी” एक ही है और
सुरत मालिक को प्यारी है.
“राधा आदि सुरत का
नाम, स्वामी शब्द निज धाम.
सुरत-शब्द और
राधा-स्वामी, दोनों नाम एक कर जानी.”
पर जब तक मन में
मलीनता यानी मैल है, जीव को सच्चे और खालिस प्रेम की दात कभी नहीं मिल सकती. लेकिन
जिस भी जीव ने सतगुरु वक़्त और पूरे की शरण ले ली, उसके भीतर से मलीनता तो
धीरे-धीरे कम होती जाती है, पर इस मलीनता की जड़ तो तभी कटेगी जब राधास्वामी दयाल की
दया की दात मिलेगी. इसीलिए मत में द्रढ़ है की हमारा ईष्ट राधास्वामी दयाल है.
प्रीत तो जानवर भी
करते है, जैसे गाय बछड़े के साथ करती है और बछरा भी गाय के पीछे-पीछे घूमता फिरता
है. पर यह प्रीत कुछ ही दिन की होती है, बाद में वे एक-दुसरे को पहचानते तक नही.
पशुओं में मुख्यता इन्द्री व देह का भाव ही अहम होता है, तो वे गुदा व नाभी कँवल
तक ही सीमित होते है, अंतःकरण के स्तर पर पहुँचने से उनकी म्रत्यु हो जाती है.
उनमे मन व आत्मा का भेद नही होता, दोनों एक ही है और यही मनुष्य व अन्य सभी
योनियों के बीच मुख्य अंतर है. मनुष्यों में भी मन की तरंगें है, पर हमारी जान
सुरत में बस्ती है, मन में नहीं. मनुष्य चोले में अंतःकरण के स्तर से प्रीत की जा
सकती है, मन से मन का मिलन भी हो सकता है और ये मोहब्बत सारा जीवन निभाई भी जा
सकती है जैसे लैला-मजनू , राधा-कृष्ण , हीर-रांझा कई उदहारण मिलते है. और कभी-कभी
देखा गया है की इन्तेहाई मोहब्बत का असर एक जनम के बाद दूसरे जनम तक भी पहुँच जाता
है. पर ऐसे में प्रेमी को अपने प्रीतम के सिवा कुछ भी नहीं सूझता.
मनुष्य चोला मिलने
पर भी अक्सर पशुता अपना प्रभाव बनाय रखती है. अक्सर कोई लोमरी की तरह चालाक मिल
जाता है , कोई कौवे की तरह घाग, कोई बाघ की तरह अपने ही अहम् से चूर, क्रोधी और हर
किसी पर रौब गांठता फिरता है, कोई गाय की तरह सीधा तो कोई गधे की याद दिला देता
है. दरअसल मनुष्य पहले नरपशु, फिर नर होता है. हर एक मनुष्य में अन्य सभी योनियों
के संस्कार मौजूद होते है. न जाने कब कौन अपना सर उठा ले कुछ कहा नहीं ज सकता , सब
प्रारब्ध के अनुसार ही होता है.
तो जीव जब मनुष्यता
में पूर्ण होता है, तब ही अंतःकरण के घाट से पूरे स्तर की प्रीत कर सकता है, जब
अंतःकरण में प्रीत जग जाती है, तब ही मन से मन का मिलन होता है. फिर जब तीसरे तिल,
जहाँ पर की अंतर मन का घाट है में समाई होती है तब उस घाट के प्रभाव से बहुत ही
गहरी और ऊंचे स्तर की प्रीत जगती है और अथाह प्रेम का द्वार खुलना शुरू होता है,
जो कभी नही घटता पर बढ़ता ही जाता है. और जब हर स्तर के मन से पार हो कर सुरत,
प्रेम के अमोघ सागर को प्राप्त होती है – तब यही निर्मल आनंद है.
तो जैसे-जैसे मालिक
के चरणों में प्रेम बढ़ता जायगा, जगत के प्रति प्रीत कम होती जायगी, पर इसका यह
मतलब हरगिज़ नहीं कि जगत के सारे काम बंद हो जायेंगे , जैसे एक पतिव्रता स्त्री
अपने सास-ससुर, जेठ, देवर-देवरानी आदी सभी का ध्यान रखती है, पर मुख्य रूप से
प्रेम-प्रीत अपने पति से ही करती है. ऎसी ही प्रेम-प्रीत हमें मालिक से करनी
चाहिए. अभी जो प्रीत हम कर रहे हैं वो ऊपरी प्रीत है, तन,मन व इन्द्रियाँ सब बाहरी
बाते हैं. मालिक से प्रेम माँगना मालिक को ही मांग लेना है, मालिक ही प्रेम स्वरुप
है, ऎसी ही प्रेम दात के लिए सतगुरु से विनय करनी चाहिए – “प्रेम दात गुरु दीजिये,
मेरे समरथ दाता हो.”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय
की स्थापना के प्रति समर्पित.
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