Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... १०
विशवास ही परमार्थ की नीव है. ...
विश्वास, सुनने से, सुनना मालिक के वचन से और वचन मालिक की दात से प्राप्त होता है.
परमार्थ की समस्त कार्यवाही अंतर से सम्बन्ध रखती है. तो जीव पहले सुन कर, फिर सोच-विचार कर और तब व्यवहार में अपना कर, परमार्थ के धरातल पर कदम रखता है.
इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि ऊपरी और बाहरी यानि व्यवहारिक तौर से जीव की करनी चाहे कितनी ही शुद्ध और परमार्थी क्यों न मालूम दे, वह निष्फल तो नहीं जायगी, पर ऐसी करनी से वह परमार्थी लाभ जो की संतों ने बताया है हरगिज़ प्राप्त न होगा. सतयुग में जिनकी भी हिरण्यगर्भ यानी प्रणव पद ओंकार तक पहुँच हुई, वह अंतर अभ्यास से ही हुई, पर उन्हें भी समय के अनुसार, वहां से लौट कर आना ही पड़ा. ओंकार पद का आनंद भी खालिस और अनंत नहीं है. पर यह संतों का मत है, दुनियावी हर मजहब का अंत तो प्रणव पद ही हो जाता है. जब की संतों का मार्ग यहाँ से शुरू होता है.
संत मत के अनुसार जो भी कार्यवाही तन व मन से, बिना सुरत की दखल के की जायगी, वह सब ऊपरी तौर पर की गई बाहरी और संसारी ही है. यह संसार काजल की कोठरी के सामान है, जीव की आँख में जो कला बाँध होता है वाही काजल है और जो पुतली है वाही कोठरी है, अब जब इसके परे जाय, तब ही इस कोठरी से निकल सकता है. जैसे सूरज की किरणों से प्रकाश के कण आ रहे है वैसे ही अँधेरे के कण इस काजल की कोठरी से निकल रहे है. यदि संत-महात्मा भी इस घाट पर ठहरे तो उन पर भी ये अँधेरे के कण अपना प्रभाव डाले बिना न रहेंगे. ऊधो जी, कृष्ण महाराज के अति प्रिय सखा थे, हर वक़्त का साथ था. तो ऊधो जी ने जब कृष्ण जी से वक़्त आखिरी कृष्ण जी से अपने साथ अपने धाम ले चलने के लिए कहा, तब कृष्ण जी ने यही कहा की योग-अभ्यास करो. कहने का मतलब यह है की, हर युग में अपने वक़्त के अनुसार ही अंतरी कार्यवाही करने से काम बना है और बनेगा. पिछले युगों की कार्यवाहियां अगले युगों में जीव से न बन पड़ी है और न पड़ेंगी. संतों की परमार्थी कार्यवाही की शुरूआत छठे चक्र यानि तीसरे तिल से होती है, मन और प्राण के बंधन यहाँ पहुँच कर ढीले पड़ जाते है. सुरत ही मालिक की अंश है, वही मालिक के दरबार में पहुँच सकती है, मन और माया की वहां कोई रसाई नहीं.
अंतरी कमाई के लिए आदि भाग्य यानि पूर्व जन्मों के संकलित संस्कार, का जागना ज़रूरी है , बिना इनके जागे अंतर्यात्रा शुरू नहीं हो सकती. संतमत में कोरे बैराग का कोई महत्त्व नहीं है, बैराग – अनुराग सहित होना चाहिए. मालिक के दरबार में सच्चे अनुराग की ही परख होती है.
सच्चे अनुराग से ही विरह पैदा होती है. पर यदि कोई यह सोचे की सिर्फ विरह से ही उसका काम बन जायगा, तो यह गलत है. यदि विरही को वक़्त रहते संत-साध का साथ न मिला तो यह विरह की बेल सूख जाती है. भाग से जो संत-साध का संग और सत्संग मिल जाय तो वे इस घाट की विरह को सुखा कर, ऊंचे घाट की विरह को जगा देते है और फिर उससे ऊंचे घाट की. इस तरह एक दिन धुर पद में भी पहुंचा देते है. नाम प्रदान करते वक़्त सतगुरु जो फरमाते है , वह व्यथा नहीं है. वे अपनी दात कभी वापस नहीं लेते. वे यही दात बक्श्ने ही तो आये हैं. उनका हुक्म इस धरा पर टल नहीं सकता, वह तो हो कर रहेगा. यागी एक जनम में सुरत न पक सकी तो अगले जनम में पकेगी, पर पकेगी. जिसने सतगुरु पूरे की और सतगुरु पूरे ने जिसकी उंगली एक बार थाम ली उसे तो वे सत देश पहुंचा कर ही रहेंगे . यही दयाल की निज दात है, जिसे सतगुरु पूरे के रूप में जीव भाग से पाता है.
राधास्वामी दयाल की दया , राधास्वामी सदा सहाय .
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.        

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home