अंतर्यात्रा
........ ७
सच्चा मीत , परम
हितकारी .....
कुल मालिक
राधास्वामी दयाल , सदा अपनी मेहर द्रष्टि जीव के हित पर ही रखता है. इसी को मालिक
की मौज कहा गया है.
मालिक ने सुरत को
होश में लाने के लिए ही जगत में भेजा है और काल मन के द्वारा अपना आप दे कर इसे
होश में लाया है और सुरत के जरिये माया के रस लेता है – यही काल का कर्जा है. यह
कर्जा हर जीव को हर हाल में चुकाना ही होता है. जब जीव चेत कर, मन और माया के
गिलाफों को झार कर, अंतर्यात्रा पर चलता है, तब एक दिन मालिक के चरणों में पहुँचने
के योग्य बन पाता है. सो मालिक की याद हर दम बनी रहनी चाहिए – यही याद दीहानी है.
मालिक की द्रष्टि
हमारे अवगुणों पर नही होती है, वह हमेशा हमारे हित पर ही अपनी द्रष्टि रखता है –
इसे ही मालिक की मौज कहा गया है.
“अनामी पुरुष” हर
मौज, शब्द, रूप, रंग, आकर व रेखा से रहित है. जब मौज हुई तब नीचे का चैतन्य केंद्र
की तरफ खिंचा. मौज में कोई स्पंदन या हरकत नही है, दयाल देश सदा स्थिर, निश्चल और
निर्मल है. वहां का सारा खिंचाव अंतर्मुख है. स्पंदन जहाँ से शुरू हुआ, वहां से
झुकाव बहिर्मुख है और चंचलता – मलीनता में परिवर्तित होती चली गयी – यही “माया” की
तहें है.
मालिक न तो हमारी बुराइयों पर क्रोधित होता
है, न ही किसी को दंड देता है और न ही बदला लेता है. उसकी दया की धार हर पापी और पुण्यात्मा
पर सामान रूप से जारी है और बिना परिश्रम सभी जीवों को मिलती है. यही कारन है कि
जीव को दया की कद्र नहीं. ज़रा सोचो यदि हवा न रहे तो ? ..... पर जारी है और सभी के
लिए जारी है. युग बदले, जीव बदले, मनुष्य की सोच, मान्यताए और विशवास बदल गये,
डील-डौल और व्यवहार बदले पर दया न बदली, वह तो सदा से जारी है और यही उसके सदा
जारी रहने का आश्वासन भी.
मालिक में कोई क्रोध
– विरोध नहीं है. ये सभी बातें तो निचले घाटो पर जारी हुई, वह तो इन सब घाटो से
परे है. क्रोध की जड, काम में छिपी है, काम के होने से ही कामनाए उठती है और जब
कामनाए पूर्ण न हों तो क्रोध में परिवर्तित हो जाती है इस तरह विरोध पैदा हो जाता
है.
ऐसा नहीं कि मालिक
को किसी की खबर नहीं, उससे कोई न छिप सका और न ही सकता है. उसकी आम दया की धार में
रह कर ही चोर-चोरी करता है, विषयी-विषय भोगता है, जुआरी-जुआ और शराबी-शराब पीता
है, पर वह किसी पर जोर दबाव नहीं डालता, बल्की स्वयं ही “गुरु” रूप धारण कर के धरा
पर आता है और सत्य वचन का उपदेश करता और मार्ग बताता है. पर उसका उपदेश सुने कौन ?
सुने तो वही जो चेता हो. अभी तो जगत में माया की ठिठोली ही गूंज रही है.
“हंस हंस माया जाल
बिछाया.
निक्सन की कोई राह न
पाया..”
जगत में काल जीव को
मन के द्वारा भुलावे दे देकर और माया हर तरह के भोगों में फसां कर, खुद मज़ा ले रहे
हैं. काल और माया में यह सामर्थ नहीं कि रस का आनंद ले सके, तो वे सुरत को अपने
जाल में फसां कर, अपनी इस कमी को पूरा कर रहे है. असल सामर्थ तो सुरत की है, पर
काल अपना आप दे कर मन के माध्यम से इसे जगत में होश में लाता है और इन्द्रियाँ
औजार के रूप में दे दी, देखा जाय तो सुरत के लिए जगत में यही उचित भी था, क्योंकि
और कोई तरीका सुरत को जगत में होश में नहीं ला सकता था. – यही काल का कर्जा है,
जिसे हर जीव को चुकाना ही होगा. जिसे पूरा किये बिना कोई भी काल और माया के जाल से
छूट नही सकता. जरा सोच कर देखो कि, जब सुरत की बूंद भर सामर्थ से जगत में इतना रस
है, तो सुरत जब अपने घाट पर पहुंचेगी तब वहां के रस और आनंद की तो तुम इस जगत में
कल्पना भी नहीं कर सकते.
लेकिन सुरत तो चेते
तब, जब जगत और माया की आस कुछ कम हो. संतो ने सदा जीव को चेताया की सतगुरु की खोज
करो, पर आज कौन चेता है ? किसने सतगुरु को खोज कर पाया ? सब तमाशबीन बने डोल रहे
है. जितना बड़ा तमाशा, उतनी बड़ी भीड़. जगत में पाया की लाउडस्पीकर लगा कर “नाम दान”
किया जा रहा है – ये तमाशा नहीं तो और क्या है ? तो कौन रहा है कर उपदेश, और कौन
रहा है सुन ? मालिक हमारी संभाल ऐसे ही करता है जैसे माता निज पुत्र की. माँ –
बच्चे को गोद में ले कर टीका लगवाती है, ताकि बच्चे को कम से कम तकलीफ हो. ऐसे ही
मालिक, जगत में हमारे आदि कर्म कटवाता है और दया की संभाल भी बनाए रखता है, पर
टीका लगना बच्चे के लिए ज़रूरी भी है, इसके बिना बच्चा स्वस्थ कैसे होगा. जीव के
कर्म ऐसे ही कटवाए जाते है. मालिक अपने भक्तों का इस तरह ध्यान रखता है की –
दास दुखी तो मै
दुखी, आदि अंत तिहूँ काल.
पलक एक में प्रकट
होए, छिन में करूँ निहाल..
सुरत जब माया के मोह
से छूट कर ऊपरी मंडलों में बढ़े, तब ही वह मालिक के चरणों में पहुँचने के काबिल हो
सकती है. सुरत ही वहां पहुँच सकती है क्योंकि वह मालिक का अंश है. काल और माया तो
बस ऊपरी खोल ही है और उस स्तर के प्रबल चैतन्य से, जहाँ से की वे प्रकट हैं, जितना
चैतन्य हो सकते थे, वे हो गये. इनका सत लोक में प्रवेश संभव नही.
अब देखना यह है की
मोह के बंधन छूटे कैसे ? सिमरन. बस सिमरन ही एक मात्र साधन है. हमारा ध्यान जगत की
माया में फंसा रहता है, याद भी बनी रहती है और ध्यान को जगत में फंसाय रखती है, अब
यही याद हर वक़्त जो मालिक की बनी रहे तो ? ध्यान अंतर में खिंच जायगा और जगत के
बंधन खुद बा खुद ही ढीले परते जायेंगे – यही सिमरन है यानि याद करना. तो नाम सिमरन
ही मोह के बन्धनों को काटने का अचूक अस्त्र है.
जिसे मालिक से मिलने
का दर्द होगा, उसे टीस भी उठेगी. दर्द जितना ज्यादा होगा टीस भी उतनी ही ज्यादा
उठेगी. तो जब देह में दर्द की टीस उठती है तब उठती ही है, हम उसे याद कर के नही
उठाते, वह तो बस उठती ही है. मालिक भी ऐसी ही टीस से मिलेगा. जो हर वक्त – हर दम
बस उठती ही रहे. जैसे पानी के जहाज का कप्तान पूरे जहाज की संभाल करता है पर ध्यान
हर दम कम्पस पर ही रहता है. इसी तरह जीव को भी जीवन का यापन करते हुए लोंव घाट-भीतर
ही लगाय रखनी उचित है और वाही सच्चे मायनों में अंतर्यात्री है. यह हालत गुरमुख की
होती है, पर देखता हूँ की कुछ गुरु, जो खुद को परम संत भी कहलवाना पसंद करते
है, अपने अनुयायियों से पर्चे भरवा कर
गुरमुख होने का प्रमाण मांगते है. और न जाने किस-किस को प्रमाणित करते रहते है.
इस वक़्त तो ये बाते
किस्से-कहानी ही लगेंगे, पर जो गुरु पूरा और चेला सच्चा गुरमुख ठहरा तो एक दिन वे
अपनी दया से अवश्य ही परम पद में पहुंचा देंगे.
राधास्वामी सदा सहाय
.....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .
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