अंतरयात्रा 47
मै निगुरा भक्ति न जोगा..........
जरूरी है की परमार्थ की राह मे " भक्ति "का भाव हमेशा बना रहे , क्योंकि जैसे ही यह भाव कमजोर पड़ा तुम नीचे जगत की ओर फिसलना शुरू हो जाओगे इसके लिए मन मे,संसार की सांसारिकता के प्रति कुछ उदासीनता तो रखनी ही होगी , वरना भक्ति न बन सकेगी । तब ही अंतर अभ्यास थोडा बहुत बन पाता है।भक्ति के लिए तीन बातो का होना आवयशक है। पहला ,अपने इष्ट राधास्वामी दयाल को हर वक्त समक्ष उपस्थित मानना।दूसरी, कुल मालिक दयाल को सर्व समर्थ समद मानना और तीसरी , इस बात पर पक्का और पूरा यकीन रखना की जो कुछ होता है मालिक की मौज से ही होता है और उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता और सदा मालिक की मौज मे राजी रहना ।जगत के प्रति कुछ उदासीनता के लिए भी तीन बातो का विशेष ध्यान रखना होता है । पहली, यह की सिवाय आवयशक व्यहवारिक्ता के , मन मे जगत के भागो का रस लेने के लिए , मन व इन्द्रियों मे चाह न उठाय ।फिर यदि मन मे कोई चाह उठ भी जाये तो उसे इन्द्रियों की व्यहवारिक्ता मे उठने से रोके। दूसरी , जो भोग अनायास ही प्राप्त हो जाय उन्हें मालिक की मौज जान कर , उनका आवयशकता अनुसार उपयोग तो अवश्य करे पर चैतनय रहे और उपभोग से बचे । तीसरी यह की जो भोग और पदार्थ हक और हलाल से कमाय उनमे भी सजग और सचेत रहे, अति उत्साह मे आवयश्कता से अधिक व्यहवार न करें,वरना यह भी जगत के बंदधनो मे फसायगा और भक्ति के स्तर मे गिरावट का कारण बन जायगा।भक्ति की रीत यही है कि ,भक्त जो भी काम करे, अपने मालिक की मौज के अनुसार ही करे और जो भी और जैसा भी उसका फल मिले उसे सहज रूप से स्वीकार करे, क्यूंकि जो यदि शिकायत करी या मंज़ूर न किया तो भक्ति से जायगा और सारी प्रीत व् प्रतीत रूखी और बे मज़ा हो जाएगी। मतलब यह है की जो मौज मे राजी रहा तो भक्ति उत्तम है और जो सामान्य रहा यानि न राजी और न नराज तो भक्ति मध्यम है और जो कुछ देर नराज़ रह कर आप ही समझ कर सम्भल गया तो भक्ति का स्तर निम्न है ।वैराग यानि जगत के प्रति उदासीनता की रीत भी कुछ ऐसी ही है । पहला तो यह की जगत के भोगो के प्रति अनावश्यक इच्छा को न उठाना ।भक्ति की दात पाने के लिए ऐसा संकल्प ज़रूरी है, क्यूंकि बार-बार सांसारिक चाह के उठने से" मन" पुष्ट होता है , जोकि आदत बन जाती है और मालिक की भक्ति , सतगुरु के सत्संग और अंतर अभ्यास मे बाधा बन जाती है। फिर भी कहता हु की प्रयास करने पर भी किसी भोग विशेष की चाह यदि बार-बार उठ रही है तो उसे एक बार भोग लेना ही उचित है। पर ध्यान रहे की उस भोग को भोगने की चेष्टा अनुचित और अनैतिक न हो , फिर भोग को भी सहज कर्म मान कर ही भोगे , न की उसमे आनन्द की खोज करे वरना यह सहज भोग भी वासना बन कर बराबर अपना ज़ोर बनायगा और मन को फिर से जगत की कीच मे खिंच लायेगा, फिर न भक्ति बनेगी न परमार्थ।सच्चे परमार्थ की कमाई और उसके संयमो कि संभाल , सतगुरु पुरे की दया मेहर और सत्संग के बिना बहुत मुश्किल है । इसलिय सबसे पहले संत सतगुरु वक्त की खोज और फिर उनकी सेवा सत्संग करना और फिर उनकी बताई युक्ति के अनुसार चेत कर सूरत-शब्द अभ्यास का करना आवयशक है । इस रीत के विपरीत जो परमार्थ के निमित कार्यवाही की जायगी , वह हठ के साथ त्याग की ही होगी और उसका फल , भक्ति और प्रेम की दात न हो कर सिर्फ शुभ कर्म का ही होगा।
सतगुरु दीजे भक्ति दान ।
प्रेम दात ले पहुँचूँ धुर-धाम ।।
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधस्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की सथापना के प्रति समर्पित)
मै निगुरा भक्ति न जोगा..........
जरूरी है की परमार्थ की राह मे " भक्ति "का भाव हमेशा बना रहे , क्योंकि जैसे ही यह भाव कमजोर पड़ा तुम नीचे जगत की ओर फिसलना शुरू हो जाओगे इसके लिए मन मे,संसार की सांसारिकता के प्रति कुछ उदासीनता तो रखनी ही होगी , वरना भक्ति न बन सकेगी । तब ही अंतर अभ्यास थोडा बहुत बन पाता है।भक्ति के लिए तीन बातो का होना आवयशक है। पहला ,अपने इष्ट राधास्वामी दयाल को हर वक्त समक्ष उपस्थित मानना।दूसरी, कुल मालिक दयाल को सर्व समर्थ समद मानना और तीसरी , इस बात पर पक्का और पूरा यकीन रखना की जो कुछ होता है मालिक की मौज से ही होता है और उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता और सदा मालिक की मौज मे राजी रहना ।जगत के प्रति कुछ उदासीनता के लिए भी तीन बातो का विशेष ध्यान रखना होता है । पहली, यह की सिवाय आवयशक व्यहवारिक्ता के , मन मे जगत के भागो का रस लेने के लिए , मन व इन्द्रियों मे चाह न उठाय ।फिर यदि मन मे कोई चाह उठ भी जाये तो उसे इन्द्रियों की व्यहवारिक्ता मे उठने से रोके। दूसरी , जो भोग अनायास ही प्राप्त हो जाय उन्हें मालिक की मौज जान कर , उनका आवयशकता अनुसार उपयोग तो अवश्य करे पर चैतनय रहे और उपभोग से बचे । तीसरी यह की जो भोग और पदार्थ हक और हलाल से कमाय उनमे भी सजग और सचेत रहे, अति उत्साह मे आवयश्कता से अधिक व्यहवार न करें,वरना यह भी जगत के बंदधनो मे फसायगा और भक्ति के स्तर मे गिरावट का कारण बन जायगा।भक्ति की रीत यही है कि ,भक्त जो भी काम करे, अपने मालिक की मौज के अनुसार ही करे और जो भी और जैसा भी उसका फल मिले उसे सहज रूप से स्वीकार करे, क्यूंकि जो यदि शिकायत करी या मंज़ूर न किया तो भक्ति से जायगा और सारी प्रीत व् प्रतीत रूखी और बे मज़ा हो जाएगी। मतलब यह है की जो मौज मे राजी रहा तो भक्ति उत्तम है और जो सामान्य रहा यानि न राजी और न नराज तो भक्ति मध्यम है और जो कुछ देर नराज़ रह कर आप ही समझ कर सम्भल गया तो भक्ति का स्तर निम्न है ।वैराग यानि जगत के प्रति उदासीनता की रीत भी कुछ ऐसी ही है । पहला तो यह की जगत के भोगो के प्रति अनावश्यक इच्छा को न उठाना ।भक्ति की दात पाने के लिए ऐसा संकल्प ज़रूरी है, क्यूंकि बार-बार सांसारिक चाह के उठने से" मन" पुष्ट होता है , जोकि आदत बन जाती है और मालिक की भक्ति , सतगुरु के सत्संग और अंतर अभ्यास मे बाधा बन जाती है। फिर भी कहता हु की प्रयास करने पर भी किसी भोग विशेष की चाह यदि बार-बार उठ रही है तो उसे एक बार भोग लेना ही उचित है। पर ध्यान रहे की उस भोग को भोगने की चेष्टा अनुचित और अनैतिक न हो , फिर भोग को भी सहज कर्म मान कर ही भोगे , न की उसमे आनन्द की खोज करे वरना यह सहज भोग भी वासना बन कर बराबर अपना ज़ोर बनायगा और मन को फिर से जगत की कीच मे खिंच लायेगा, फिर न भक्ति बनेगी न परमार्थ।सच्चे परमार्थ की कमाई और उसके संयमो कि संभाल , सतगुरु पुरे की दया मेहर और सत्संग के बिना बहुत मुश्किल है । इसलिय सबसे पहले संत सतगुरु वक्त की खोज और फिर उनकी सेवा सत्संग करना और फिर उनकी बताई युक्ति के अनुसार चेत कर सूरत-शब्द अभ्यास का करना आवयशक है । इस रीत के विपरीत जो परमार्थ के निमित कार्यवाही की जायगी , वह हठ के साथ त्याग की ही होगी और उसका फल , भक्ति और प्रेम की दात न हो कर सिर्फ शुभ कर्म का ही होगा।
सतगुरु दीजे भक्ति दान ।
प्रेम दात ले पहुँचूँ धुर-धाम ।।
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधस्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की सथापना के प्रति समर्पित)
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