Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ४१

कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ .....

कबीर साहब उस वक़्त खड्डी पर कपड़ा बुन रहे थे, जब की काशी के एक नामी विद्वान जयंत आचार्य उनके पास पहुंचे. वे कबीर साहेब के ज्ञान और संत भाव की ख्याती सुन कर आये थे. आचार्य का सोचना था की साहेब का अनूठा वेश विन्यास होगा, पर देखा की कबीर का वेश तो अत्यंत साधारण है, कमर के नीचे कुछ मैली, कुछ फटी सूती धोती भर लपेटे खड्डी पर ख़त पट. खैर, बात चीत शुरू हुई तो पता चला की कबीर तो अत्यंत साधारण है. दिन भर दुनियां दारी के कामों में लगे रहते हैं, प्रश्न उठा की तब ईश्वर का स्मरण कब करते हैं ?
कबीर, जयंत आचार्य को अपने साथ झोपड़ी के बाहर ले आये. बोले मेरा मार्ग कथनी का नहीं, करनी का है. कुछ देर यहीं खड़े रहो अभी तुम्हारे सवाल का जवाब दिखता हूँ. तभी सामने से एक स्त्री पानी से भारी गागर सर पर रखे हुए आ रही थी, उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में तेजी थी, अपने में मगन वो कुछ गुनगुनाती चली आ रही थी. गागर को उसने पकड़ा हुआ नहीं था फिर भी गागर छलक न रही थी. साहेब ने जयंत आचार्य से कहा, उस स्त्री को देखो, जो गुनगुनाती चली आ रही है. क्या उसे गागर की याद आ रही है ? जयंत बोले, यदि उसे गागर की याद न होती तो अब तक तो वो गागर नीचे गिर चुकी होती. सुनते ही कबीर तुरंत बोले, ये साधारण सी स्त्री सर पर गागर रख कर अपने में मगन. गुनगुनाती चली जाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है, क्या अब भी तुम समझते हो कि परमात्मा का स्मरण करने के लिए मुझे अलग से कोई वक़्त निकालने की ज़रुरत है ? कपड़ा बुनने का काम शरीर करता है, आत्मा नहीं, इसलिए ये हाथ भी मालिक के आनंद में लीन हो कर कपड़ा बुनते रहते है.
ऐसे ही हम जीवों को मालिक के सिमरन और आनंद में लीन रह कर जगत में अपने सभी कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करते रहना ही उचित है.
सतगुरु साहेब सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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