Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ४३
अज़र, अमर, अविनाशी..... पर मुक्त नही .
शास्त्र कहते हैं की मनुष्य शरीर मात्र नहीं है. वह चैतन्य आत्मा है. आत्मा या आत्म तत्व ही इस शरीर का पोषक है. जैसे ही यह आत्म तत्व इस शरीर से बाहर निकलता है, शरीर गलने लगता है. आत्मा ही शरीर की वास्तविक पोषक है.
बुद्धी, कर्म, भोग, अहंकार, लोभ, मोह, आदी शरीर और मन के ही धर्म हैं, आत्मा के नहीं. पर आत्म ज्ञान के अभाव में जीव इस भ्रान्ति में रहता है की मैं शरीर हूँ, आत्मा नहीं, यही तो अज्ञान है. प्रथ्वी, जल, अग्नी, वायु, आकाश इन पांच तत्वों से मिल कर शरीर बनता है, जो भोतिक, अनित्य और नष्ट होना ही है. म्रत्यु उपरान्त शरीर तो नष्ट हो जाता है पर हम शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी अगली यात्रा पर निकल जाते हैं. जैसे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नया वस्त्र धारण कर लेते हैं, यह शरीर हमारा वस्त्र मात्र ही है, जो भोतिक पदार्थों से मिल कर बना है. हम घर नहीं हैं, बल्की उसमे रहने वाले मालिक हैं.
आत्मा सदा चैतन्य है. आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता, वह ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र नहीं होती. वह तो चैतन्य शक्ती मात्र है, जो समस्त जीवों में सामान रूप से व्याप्त है. आत्मा की ना तो कोई जाती होती है न ही कोई धर्म. आत्मा न कर्ता है न भोक्ता न ही भोग्य विषय है, वह तो इन तीनो से परे असंग, निराकार और साक्षी मात्र है.
बहुत से लोगों ने मुझसे कहा की यह कलियुग है, पंचम काल है, इसमें तो किसी की मुक्ती हो ही नहीं सकती. पर में कहता हूँ की ये सब बकवास है. अगर तुम खुद को चैतन्य में स्थिर कर सकते हो तो अभी मुक्त हो सकते हो. आत्मा मुक्त है, चैतन्य है, सर्वत्व व्यापक है. वह किसी बंधन में बंधी नहीं है, शारीर सीमित है, आत्मा किसी एक शरीर या मन से बंधी नही है. सारी भिन्नता शरीर गत है, आत्मा का कोई रूप नहीं है. रूप तो बनते और मिटते रहते हैं. पर मूल कभी नही बदलता.
......... यही “शब्द” है, “सच्चा नाम”.
आँखों के नीचे रह कर सच्चे नाम का ज्ञान नहीं हो सकता. जब सुरत नो द्वारों से सिमट कर आँखों से ऊपर आती है, तभी यह “नाम” मिलता है. धार्मिक पुस्तकें और ग्रन्थ तमाम नामों से भरे हुए हैं. पर ये सभी नाम आत्मा को उसके बन्धनों से कभी मुक्त नहीं करा सकते. मुक्ती देने वाला नाम प्रत्येक व्यक्ती के लिए एक ही है. चाहे वह किसी भी जाती, धर्म, देश आदी का हो. यह नाम हर पल हर वयकति के अंतर में धुन्कार रहा है. यह नाम किसी मनुष्य का रचा हुआ नहीं है, यह अनादी और अनंत है. जगत की रचना से पहले भी यही था और मलय के बाद भी यही होगा. वेद और उपनिषद इसे “नाद”, आकाशवाणी और अनाहत शब्द कहते हैं, हुकुम, धुन, शब्द की धारा, आन्डीबिल लाइफ स्ट्रीम या सुनाई देने वाली जीवनधारा, शब्द, अनाहत शब्द, सच्ची बानी, आदी अनेक नामो से याद किया जाता है. फकीरों ने इसे ही कलमा, बांग, निदा ए आसमानी, इसम ए आज़म, सुलतान उल अज्कार, कलाम आदी कहा है. हजरत ईसा ने इसे ही वर्ड और लागोस कहा है.
धुनात्मक नाम का स्थूल शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह न लिखने, पढ़ने या बोलने में आता है और न ही इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है. केवल आत्मा ही इसका अनुभव कर सकती है और वह भी तब जब कोई “पूरा गुरु” हमें आत्मा को इसके साथ मिलाप की युक्ती बता दे.
वर्णात्मक और धुनात्मक नाम का अन्तर तब ही समझ में आता है जब मनुष्य, पूरे गुरु की दया मेहर से “तीसरे तिल” पर ध्यान
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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