अंतर्यात्रा ..... ३४
बहत प्रेम बयार, सुरत सकल रस भीजत भीनी ..... मालिक की मौज और मन की गति, दोनों की दिशा विपरीत होती है. मौज का सार अंतर में सिमटना है और मन बाहार्मुख बिखराव की दिशा में बढ़ता है. कुल रचना मौज से ही है और कुल का मकसद यही है की, कुल का मालिक कुल में सिमटाव हो और कुल मालिक में एक हों. सुरत और मन का मेल नहीं हो सकता. सुरत और शब्द के गुण सामान हैं, इस तरह सुरत में प्रेम कुदरती तौर पर है. जब भी मन का जोर कम होता है, प्रेम खुद-ब-खुद प्रकट हो जाता है. सुरत जो की अभी मन की आसक्ति की वज़ह से, बहार मन-इंद्री के भोगों में फंसी है, वह तो अंतर में प्रेम से ही सिमटेगी. सुरत और शब्द की प्रीत स्वाभाविक और कुदरती है. जब की सांसारिक प्रीत, मन की किसी न किसी लालसा, कामना और मतलब से होती है, जो की समय के साथ (काल के प्रभाव से) बदलती रहती है और मतलब पूरा होते ही – नदारत हो जाती है. यूँ तो संसार में एक माँ और बच्चे की प्रीत सबसे उत्तम, शुद्ध, सात्विक और आला दर्जे की मानी गई है, पर, शादी होने और बच्चे होने के बाद, इस आला दर्जे की प्रीत में भी कमी आती हुई देखी जाती है. शरीर रुपी दिए में लालसाओं के तेल से, विषय-भोगों के प्रति आसक्ति रुपी प्रीत की बत्ती जल रही है. सांसारिक आसक्ति की प्रीत को मालिक कुल और सतगुरु की भक्ति की रीत में बदल कर ही, चौरासी का जीव, निराकार की प्रीत में लीन हो कर प्रेम स्वरुप हो जाता है, जो व्यापक नहीं पर व्याप्त है, हर जगह, हर पल, हर दिशा और हर रूप में. राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .... राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्व विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित. |
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