अंतर्यात्रा .....३७
मै या तुम , जो बसे सब अंत, सोई बसंत. सभी जीव, जगत में अपना भाग जगाने के जिए ही भेजे गये हैं. जब तक जीव चेत कर अपने भाग को नहीं जगाता और जहाँ से की सुरत आदि में आई थी, वहां चेत कर नहीं पहुंचती, वह मालिक के निर्मल आनंद को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकती. मालिक-ए-कुल, कुन फाया, उन-मन-सुन यानी खुद की खुदी में रजा, अपने आप में समाया, अरूप, अशब्द, अनाम, अनामी, परम चैतन्य, बा-खबर, बा-होश, कुल का करता हो कर भी अकर्ता है. वह अडोल और अबोल, उसके निकट का चैतन्य जो की उसी में एक रूप होता चला गया, उसमे जो पहली मौज उठी, वही प्रेम का मूल तत्व – तन्मात्रा – आकर्ष है. मालिक की इसी मौज के भीतर की मौज को किसी ने न देखा न सुना. उसका होना ही नूरानी स्वरुप का प्रकट होना है. मालिक का यही नूरानी रूप दयाल है, जिसे संत मत के अनुयायी “राधास्वामी” नाम से जानते हैं, यही सत नाम अपने हुज़ूर में अनामी है. अनामी ही राधास्वामी है और यही सत्यनाम या सतनाम है. जो चैतन्य दयाल अनामी राधास्वामी के चरणों में अचेत पड़ा था, वह चैतन्य दयाल की ही कशिश से याकी आकर्षण में बंध कर उसी में खिंचता और जप्त होता चला गया. वह तो मालिक के प्रेम में बिना किसी गरज के जप्त होता चला गया. जैसे चुम्बक के आकर्षण में लोहे के कण खिंच कर चुम्बक से चिपक जाते हैं और जो चिपक जाते हैं उनमे भी चुम्बक का असर पैदा हो जाता है, पर चुम्बक से कमतर . पर अंतर में आकर्षण का तत्व दोनों में सामान ही होता है ऐसे ही सुरत जो चेती हुई है और मालिक के चरणों में जा लगी है, सो दोनों में एक ही मौज तारी है, प्रेम और दया की. जहाँ तक, प्रेमाकर्षण में बंध कर चैतन्य, आकर्ष में जप्त या एक रस या प्रेम रत होता चला गया वही दयाल देश है, जहाँ मौज भी गुप्त है यानी मौज में कोई जुम्बिश नहीं है. फिर भी यदि मालिक की मौज में कशिश को ढूँढा जाय तो यह कशिश सभी जीवों के लिए सामान रूप से जारी हो रही है बिना किसी बदलाव के, बराबर और लगातार. जो चैतन्य अंतरी कशिश से न खिंच सका, उसमे बाहरी ताकत खुद-ब-खुद पैदा हो दई, उसी चैतन्य से, जो निम्न स्तर का होने के कारन अंतरी कशिश के संग न खिंच सका था. तब उस चैतन्य को उसकी सामर्थ के साथ नीचे काल और माया के देश भेजा गया, जहाँ की वह चेत कर अपने गिलाफ या की खोल उतार सके और निर्मल हो कर भाग जगा सके और मालिक कुल के चरणों में पहुँच कर आनंद रस का भागी हो, यही एक सुरत का आदी भाग है. जिसे जगाने के निमित्त ही कुल रचना हुई. जो मौज आदि में हुई , उसी मौज Impulse से दयाल देश रचा गया. काल-माया के देश में पहले काल में हरकत हुई और उसका असर माया पर हुआ. माया में जड़ता inertia और वज़न दोनों ही है. रचना का होना ऐसा है की जिस भी मुकाम पर इसका होना हुआ, अपने में पूरा हुआ. जैसे धरती और आकाश में भारी अंतर है पर दोनों ही अपने मुकाम पर पूरे हैं. धरती में आकार और वजन है जबकि आकाश निराकार और वजन से रहित है. दयाल देश तो कुल रचना से न्यारा है जी , इसका आदि तो है पर अंत नहीं. पर ब्रहम्मांड का आदि भी है और अंत भी, फिर पिंड देश यानी म्रत्यु लोक में तो आदि और अंत हर पल-छिन होते रहते हैं और इसके साथ योनी-वास, जीवन-म्रत्यु की तकलीफें और हर तरह के दुःख-संताप लगे हुए हैं. इन्हीं सब खूबियों के साथ यह स्थूल जगत बना, जिसमे हम जीव का चोला ओढ़ कर आये हैं. काल तो निरा शैतान है जी, जिसने खुद ही रस लेने के लिए त्रिलोकी की रचना की है. और जीवों को अपना मन और आपा दे कर संसारी भोग-विलासों में फंसाए रखना चाहता है. फूल खिलने के साथ ही मुरझाना शुरू हो जाता है, जीव जन्म के साथ ही म्रत्यु के द्वार की ओर बढ़ना शुरू कर देता है. अब जब की राधास्वामी दयाल ने खुद, जीवों के सच्चे उद्धार के लिए, मनुष्य चोले में अवतरण किया है, और हर प्रेमी सुरत में अपनी दया का बीज डाला है, तो जो भी उनकी सरन में आता है, वह प्रेम के महा सागर के आनंद में स्वतः ही डूबता जाता है. अब की कलियुग में कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने ऎसी ही मौज धारण की है. राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय..... राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित . |
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home