अंतर्यात्रा ..... ३८
आरत फेरूँ मै सम्मुख ठाढ़ी , प्रीत उमंग मेरी छिन छिन बाढ़ी . राधास्वामी मत के अनुसार जो आरती की जाती है, उसकी विधि यह है कि सुरत, सतगुरु और मालिक के सम्मुख घूम घूम कर आरती फेरती है और इस तरह मालिक की प्रेम कशिश में ऊपरी मंडलों में चढ़ती चली जाती है. सुरत घूम घूम कर ही नीचे आयी है, और घूम घूम कर ही नीचे से ऊपर चढ़ती है. इस पिंड देश – देह में अंतर्मुख और बहिर्मुख दोनों ही ताकतें सामान रूप से साथ-साथ काम करती हैं. यही वजह है की सुरत का यह घूमना उस मंडल तक, जहाँ से की बहर्मुख ताकत जारी हुई है, जारी रहता है. सुरत जैसे जैसे ऊपरी मंडलों में चढ़ती जाती है, सतगुरु और मालिक के प्रति प्रीत बढ़ती जाती है और सुरत का कुछ कुछ अंग उनमे रत होता जाता है. दसवें द्वार यानी सुन्न पद के पार होने पर सत लोक के प्रेम सागर की लहरें और झोंके आने लगते हैं. मालिक प्रेम स्वरुप ही है, प्रेम रूप है, वहां प्रेम ही प्रेम है, कुछ हरकत या जुम्बिश नहीं, वहां पहुँच कर कुछ नही करना है, बस मालिक प्यारे को या बस प्यार को प्यार करना है. सुरत ही मालिक की प्यारी और मालिक ही प्रेम स्वरुप है. इस देश में सुरत अचेत है, सतगुरु की दया-मेहर से ही चेतती है, सतगुरु सुरत की सामर्थ को बढ़ाते हैं और अपने मार्गदर्शन में एक दिन सत्य देश में पहुंचा देते हैं, पर ज़रूरी है सुरत का चेतना और हर कांक्षा का मालिक कुल के चरणों से जुड़ जाना. जिस प्रकार चाँद की चांदनी कमोद्नी में बस जाती है, ऐसे ही मालिक कुल की लगन जो सुरत में बस जाये तो मालिक का रंग उसमे समा जाएगा और वह मालिक के प्रेम में लीन हो जायेगी फिर न देर रहेगी न दूरी. इस कलियुग में मालिक ने जीव के उद्धार के निमित्त यही मौज धारण की है और क्ष्रद्धा, पूजन, भक्ती मार्ग से बढ़ कर प्रेम मार्ग जारी और मंजूर फरमाया है. सतगुरु पूरे जो जगत में मालिक का स्वरुप और शब्द रूप हैं, उनके प्रति क्ष्रद्धा और भक्ती अर्पण करने से कहीं बढ़ कर प्रेम भाव से पूर्ण समर्पण ही उद्धार का निश्चित और अकाट्य मार्ग है. राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय. राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित. |
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home