अंतर्यात्रा ..... ३६
मनोरंजन, कैसा ? कितना ? ज़रूरी है, संतमत के अनुयायी के लिए, मन के रंजन को सही तरीके से समझना और उसकी कैफियत को. प्रेम और प्रतीत जिस घाट या स्तर से, जिस स्तर के प्रेमी के प्रति व्यक्त की जाती है, उसका वैसा ही प्रभाव मन पर पड़ता है और वैसी ही मन की कैफियत होती जाती है. जो यदि प्रीत का स्तर ऊंचा नहीं है तो नीचे गिरा देगा और तन-इन्द्रियों की दिशा में बहा ले जा कर माया के नाच नचाएगा. जिसका मन राधास्वामी दयाल के चरणों में अटक गया है और सत गुरु पूरे के चरणों में ठौर-ठिकाना मिल गया है, और इतनी समझ विकसित हो गयी है की, दुनिया की हर कार्यवाहियों में परमार्थी अंग को पहचान सके, ऐसा सच्चा सत्संगी चाहें किसी भी संगत में उठे-बैठे, उसका कुछ भी हर्जा नहीं हो सकता. यदी रास्ते में कोई छैला विरह गीत गाता जा रह है तो उसे सुन कर, उस प्रेमी सत्संगी को अपने सतगुरु के दर्शनों और मालिक से मिलने की तड़प स्वतः ही पैदा हो जायेगी. हंस है तो लाख पानी में दूध की बूँद छिपी हो, वह तो निकाल ही लाएगा. सच्चे गुरमुख की हालत तो यही है जी. परिवार के संग फिल्म देखना, हँसी-ठिठोली या पिकनिक जाना हो या तीरथ जाना हो, सच्चा प्रेमी उसमे भी परमार्थी अंग खोज ही लेता है. संत मत जीव जी स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग है, सो बंधन तो कोई है ही नहीं, न तीरथ जाने का और न ही न जाने का. इस तरह एक सत्संगी, संसारी जीवों और गतिविधियों में बिना अ-सहज हुए, पूरी सहजता और स्वतंत्रता से व्यवहार और वर्ताव कर सकता है. सिर्फ द्रष्टिकोण का ही फर्क है, ताजमहल किसी को “प्रेम की इबारत” नज़र आता है तो किसी को “मकबरे की इमारत”. कहने का अर्थ यही है की एक सत्संगी का, जगत को देखने का द्रष्टिकोण ही बदल जाता है और उसके मूल में होता है – “सहज स्वीकार्य” का निर्मल भाव. अब अस्वीकार्य की कोई स्थिति ही नहीं रह जाती, इसी को “मालिक की मौज में राजी रहना” कहा गया है. तो अच्छा है, बुरा है, सब संसारी जीवों के लिए ही है, सच्चा सत्संगी तो मालिक की मौज में राजी है जी. भक्ति, इश्क और प्रेम सब एक ही है जी. पर अंतःकरण का घाट बड़ा ही मलीन है. इसमें हर किस्म के बुरे ख्याल और तरंगे पैदा होती ही रहती हैं. तो अंतःकरण के घाट या स्तर से, मालिक की जैसी भक्ति होनी चाहिए, वैसी हो नहीं सकती. मगर घाट की सफाई करते हुए, शुरुआत तो तो यहीं से करनी होगी. और तब ही तीसरे तिल पर चित ठहर सकेगा और सतगुरु के चरणों में सच्ची और गहरी प्रीत और प्रतीत कर सकेगा. इस तरह, सुरत जब निर्मल हो कर दसवें द्वार पर पहुंचेगी, तब उसे मालिक के चरणों में निर्मल प्रेम की दात प्राप्त होगी. जिसे मालिक के चरणों के प्रेम रस की सच्ची प्यास है, वह तो भर-भर के अमी रस पिएगा जी और धीरे-धीरे शरीर, इन्द्रियों और संसार की चाह खुद-ब-खुद कम से कमतर होती जायेगी. सच्चा प्रेमी सतगुरु का उपदेश ले कर और गुरु ज्ञान को धारण कर के, चाहे समक्ष या अंतर में, अपने तमाम कसूरों, गलतियों और उद्वेगों को सतगुरु के समक्ष जब ज़ाहिर करता और अपनी नाकिस करनी और करतूतों पर खराई से शर्माता और पछताता है, तब कुल माफी का द्वार खुला है. वे सब माफ़ कर देते हैं, सतगुरु का तो अंग ही दया का है. पर जो कोई करतूत ज़ाहिर न की तो फिर उसे ‘यम” के सामने ज़ाहिर करना ही होगा और फिर उसका नियति के अनुसार “कर्म फल” भोगना ही होगा. और जो मालिक के समक्ष जाहिर कर देगा – यूँ तो मालिक से कुछ भी छिपा नहीं, पर एक सच्चे प्रेमी की खराई के लिए ज़रूरी है के वह अपनी कमियों और कसरों को मालिक कुल के सुपुर्द कर दे. – तब मालिक खुद जीव का जिम्मेदार बन जाता है और काल और यम और उनकी नियति का तब कोई जोर नहीं चलता. मालिक तो पुरुष पुराना है और सुरत अंश भी उसकी, पुरानी है पर युगान युग से मन-माया के संग-साथ से मलीन हो रही है. तो जब माया को धो कर और मन को फेर कर, सुरत मालिक के समक्ष उपस्थित होती है, तब मिलते ही पहचान हो जाती है कि हम तो आशिक पुराने हैं. तुलसी साहब ने फ़रमाया है – “तुलसी अब संग साई, आदि की चिन्हारी पाई.” राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित. |
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