अंतर्यात्रा ..... ३५
... प्रेम रतन धन पायो . राधास्वामी दयाल – परम पुरुष पूरण धनि हुजुर स्वामी जी महाराज और संतों ने अपनी बानी में विशेष तौर से “प्रेम” पर अधिक जोर दिया है. बात तो यही है की प्रेम की मदद से हर काम और विशेष रूप से परमार्थी कार्यवाहियों में शीघ्र बढ़त हासिल होती है. जब की कोरे वैराग से पूरा फायदा हासिल नहीं हो सकता और न की कोरी समझ और बुद्धि से ही सच्चा मुकाम हासिल हो सकता है. देखा जाय तो दुनियां के सभी काम पूरे शौक या लगन और मोहब्बत से ही चल रहे हैं. जहाँ लगन और प्रेम नहीं है, वहां कोई काम मुकम्मल नहीं बन सकता. इस लिए लाज़मी है की सभी जीव जो सच्चे और पूरे परमार्थ के ख्वाइश मंद है और सच्चे मालिक कुल के दर्शनों के अभिलाषी है, जो की अरूप है और जिसके निज स्वरुप के दर्शन अंतर में ही हो सकते है, तो लाज़मी है की पहले तहे दिल से उससे डूब कर मोहब्बत की जाय, तब ही एक सच्चा मुरीद, अपने मुर्शिद के सच्चे, निज, रूहानी और नूरानी स्वरुप के दर्शन, अंतर में पा सकता है. पर देखा, की कुछ लोग ऐसी ख्वाइश रखते हैं की पहले अंतर में दर्शन प्राप्त हों तो प्रेम भी हो जाय. पर कुल मालिक जो अरूप है और किसी को भी दर्शन उसका पहले हो नहीं सकता, इस वजह से पहले प्रेम कर पाना मुश्किल है. पर जीव जो पहले गुरु स्वरुप में प्यार लाये और फिर गुरु के निज स्वरुप से मिलने का जतन शुरू करे तो उसका प्रेम अरूप पद में धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा. सतगुरु उपदेश के वक़्त उसी के निज रूप का भेद देते हैं, जो, अकह और अपार और रूप रंग रेखा से न्यारा है. और यही, कुल मालिक, कुल रचना और सेवक का निज रूप है. तब इस तरह से भेद को समझ कर और मार्ग की मंजिलों और मंडलों की जानकारी ले कर जो अभ्यासी बढ़ना शुरू करेगा, तो जो प्रेम उसे गुरु स्वरुप में आया है वही आगे बढ़ कर उनके निज रूहानी और नूरानी स्वरुप में बढ़ता जाएगा और इस तरह एक दिन प्रेमी अभ्यासी, स्वरुप और चरणों में प्रीत-प्रेम के आसरे ही सभी अंतरी मंडलों व आयामों को पार करता हुआ एक दिन धुर धाम तक पहुँच जाएगा. पर इसका यह अर्थ भी नहीं कि भजन का कोई अर्थ ही नहीं या वह किसी तरह कमतर है. बल्कि भजन, सच्चाई और पूरी रीत से बन सके इसके लिए मन की सफाई और ह्रदय में प्रेम का पैदा होना ज़रूरी है. इस बात को समझते हुए, जब भी अभ्यासी के मन में, भजन के वक़्त, अ-पवित्र विचार और पाप-कर्मों की ओर प्रेरित करने वाली तरंगें उठें, तो ऎसी स्थिति में भजन कम कर देना चाहिए और भजन की बजाय सतगुरु के स्वरुप पर ध्यान को स्थिर करना चाहिए, इससे अ-पवित्र तरंगें कम होते हुए रुक जाती हैं. और फिर भजन में बैठना आसान हो जाता है. साथ ही अपने मन को धिक्कारना चाहिए की भविष्य में ऎसी अ-पवित्र गुनावन उठाना उचित नहीं है. इसके लिए मन को नीचे के नरकों में गिरने और राधास्वामी दयाल के चरणों से दूर होने का भय दिखाना पड़ता है. इस तरह मन को होशियार और सफाई की ओर प्रेरित करना, भजन के जतन के लिए हितकर होता है. फिर जब मन सफाई और प्रेम के साथ भजन का जतन करने लगे, तब भजन का वक़्त, जैसा भी सहज रूप से बन सके, बढ़ाते जाना है. वरना ध्यान का अभ्यास अधिक करते हुए उसके बाद कुछ देर भजन का अभ्यास करते रहना ही उचित होता है, जब तक की मन की पूरी सफाई न हो जाय. जैसे-जैसे मन की सफाई होती जायेगी, ह्रदय में प्रेम का उफान भी बढ़ता जाएगा. आगे राधास्वामी – दयाल है जी, जब एक सुरत मालिक की तरफ एक भी कदम बढ़ाती है, मालिक की दया हम तक दो कदम नजदीक आ जाती है. राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय. राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित. |
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