Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ३९

तुम में भी मै हूँ ........
हर सुरत में एक छिपी हुई ताकत होती है. आदि शब्द की धार को थाम कर और अपना पूरा भाग जगा कर, बाहोश अपने निज धाम में पहुंचना और अमर आनंद को प्राप्त करना. मालिक के चरणों में पहुँचने की आशा ही सच्ची चाह या इच्छा है और अंतर के अथाह अम्रत के भण्डार में समा कर अम्रत बांटना ही सच्चा उपकार है.
“भौ की धार कठिन अति भारी, सो अब उलट बही.”
सुरत अपने बल से इस जगत में कोई कार्यवाही नही कर सकती. बल्की देखा है की जीव को सुरत की कोई खबर ही नहीं. जब सुरत मन का आपा या अहं धारण करती है, तब ही देह की कुछ कार्यवाही बन पाती है.
जब पूर्व जन्मो के संस्कार, संकल्प बन कर अंतःकरण में उतरते हैं, तब भी इसके कुछ परिणाम ही जीव के व्यवहार में नज़र आ पाते हैं. इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि कोई ताकत अंतर में ज़रूर है, जो कुल-करता है, वर्ना तो देह और मन ही सब कार्यवाही जगत में करते नज़र आते हैं. और बहुतेरे हैं जो मन को ही जीव की रूह और जान समझते हैं. दरअसल होता यह है की जब सुरत सिमट कर तीसरे तिल पर पहुंचती है, तब मन ने जिस व्यवस्था से अंतःकरण को साधा हुआ होता है, सब उलट-पुलट कर अव्यवस्थित हो जाती है. तब सतगुरु और मालिक ही, जो की सुरत के सच्चे हमदर्द और रहनुमा हैं, जीव को हर आवश्यक स्तर पर आवश्यकता अनुसार अपनी सामर्थ बक्शते हैं, ताकी जीव के तन-मन की संभाल हो सके.
“सतगुरु बिन कौन सम्हारे मन को, सुरत उमंग अब शब्द गहि.”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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