अंतर्यात्रा ..... ४०
आदि कर्म का लेखा भारी ..... जब तक आदि कर्म बीज रूप में मौजूद है यानी उसका स्रोत कायम है, कर्मों की लहर आती ही रहेगी. जब यह लहर कमजोर पड़े तब ही सुरत के वजूद की कुछ खबर पड़ सकती है और जगत में बिखराव के दबाव से जो सुरत बेहोश थी, वो अब धीरे-धीरे होश में आ सकती है. ऊपरी मंडलों में पहुँचने पर, जन्म-जन्मान्तरों से सुरत पर जो गुजरी है, उस सब की याद आ सकती है, पर वह सब एक ख़्वाब की तरह ही होगा. स्वप्न में जीव जो कुछ भी देखता है वह सब उस वक़्त सच ही मालूम देता है, पर जब जागता है तो सब काफूर हो जाता है. यदि जाग्रत अवस्था की ही तरह स्वप्न में भी होश रहे तो जो जाग्रत में सच मालूम देता है उसकी मिथ्यता का पता चल जाय. इसलिए आदि कर्म से जो आशाये बाँध कर जीव बार-बार जगत में आता है, उसे ही दूर करने के लिए मालिक ने सुरत को जो नर चोले में जगत में भेजा तो यह कोई दंड नहीं है, बल्की यह तो मालिक की भारी दया है. चैतन्य कभी भी अचेत नहीं रह सकता. पर कुछ लोग ऐसा सोच सकते है कि, जब चैतन्य कभी अचेत नही था और रहता तो सतगुरु चेताते किसे हैं ? और सतयुग, त्रेता और द्वापर में क्यूँ न चेताया और अब कलियुग में ही क्यूँ ? तो कहता हूँ की जगत की रचना और समस्त कार्यवाही, क्रिया और प्रति क्रिया का एक अटूट हिस्सा है जिसे हम प्रक्रिया कहते हैं. कलि युग में संतों और संत मार्ग का प्रकट होना और मार्ग को आम जीवों के हित में प्रशस्त करना इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है. जो की अपने उचित समय के आने पर ही प्रकट हुआ और होता है. हमें इस देरी का कारन इस तरह समझना चाहिए कि जीव के मानसिक और बौद्धिक स्तर को इस स्तर तक आने में इतना वक़्त लगा, की वह संतों के मार्ग और सच्ची मुक्ति और पूरे उद्धार के सिद्धांतों को समझ सके. वह परम चैतन्य मालिक कुल तो सदा चैतन्य है, वहां कोई देरी नहीं , हमारे भीतर का अंधेर ही इस देरी का मुख्य कारण है. मालिक तो नित्य है. वहां समय यानी काल का कोई वजूद ही नहीं और न ही कोई जुम्बिश या हरकत है . दयाल देश के सभी रूप, रंग और रेखा रूहानी ही है. ब्रहम्मांड के मानसिक और जगत में स्थूल है. जगत के स्तर से, दयाल देश का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता. जब हम किसी के नजदीक पहुँचते है तब ही उसका ज्ञान हो पता है. देह या मन के स्तर से दयाल देश के आत्मिक अनुभवों या शुद्ध ज्ञान के स्तर को प्राप्त नही किया जा सकता, पर शुरुआत तो देह से ही करनी होगी. मालिक कुल तो अनाम, अरूप और ला मुकाम है. और वह eternal polarization अर्थात गहन संघठित अवस्था में अनादी से ही है. उसके नजदीक का चैतन्य यानी भास् भी coeternal with the eternal polarisation उसी गहन संगठन की कशिश में खिंचा और बंधा हुआ रहा. और जो भास् स्वाभाविक रूप से नीचे छूटता रहा, उसमे भी यही प्रक्रिया होती चली गयी. इस तरह छूटते छूटते जब इस अवस्था में पहुंचा की इस प्रक्रिया को सुचारू न रख सके, तब नये संघठन की आवश्यकता हुई और इस तरह “काल और अधा” की रचना हुई. चूँकि काल जान यानी चैतन्य को पैदा नहीं कर सकता था, तो वे सुरते जिन पर चैतन्यता की न्यूनता के कारण, आदी कर्मों के सूक्ष्म निशाँ थे, और वे इस कारन बने की जो सुरते रूहानी रचना की प्रक्रिया में विचलित हो कर नीचे की ओर खिसकती गईं, उतनी ही उन पर आदी कर्म के सूक्ष्म गिलाफों की रेखाएं बनती चली गयीं. यही सुरतें अधा की धार के रूप में सतलोक से नीचे उतारी गयीं. अब जब तक की ये सुरतें, इस पिंड देश में उचित रीत यानी समस्त भौतिक कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करते हुए, अपने वर्तमान, संचित और आदी कर्म के गिलाफों को झाड़ कर, सतगुरु पूरे के साथ संघठित न हो ले, सर्व अंग हो कर मालिक कुल के परम आनंद और ज्ञान में रत नहीं हो सकती. ये कर्मों के गिलाफ तब तक नहीं झड़ सकते जब तक की संसारी चाहतें, जिनकी की आशा बाँध कर जीव भौतिक सुख और आनंद की कल्पनाएँ करता रहेगा. और आदी आस, जो की मालिक कुल के चरणों में समा जाने की है, उसकी धारणा दढ़ न की जाये. इस तरह उतार नीचे की ओर होते होते जीव में बस नाम मात्र की चैतन्यता ही बा होश अवस्था में है, बाक़ी सब बे होश ही है. किसी भूखे को भोजन देना तो परोपकार मान लेता है, पर जो अम्रत अंतर में भरा है उसकी जीव को कोई खबर ही नहीं. जो यदी अंतर के भण्डार में समावे तो बजाय रोटी के अम्रत बांटे, यही सच्चा उपकार है जी. जीव जगत के विस्तार में खुद को बिसार रहा है, तो जो काल गति मे बह रहा है उसे बहने दो जब बहते बहते सतगुरु के ठौर लगेगा, उसी क्षण से निस्तार की कार्यवाही शुरू हो जायेगी. सब की नहीं,पर अपने जीव की चिंता करो. अपनी नहीं पर सबकी सेवा करो. जिसके दिल में अभी परमार्थ की चाह नहीं जगी है, उसका अभी समय नही आया है, आदी कर्म का लेखा अभी भारी है जी. सतगुरु स्वामी सदा सहाय ..... राधास्वामी जी . राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित. |
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