अंतरयात्रा-50
चलो मन के उस पार........ आदि मे शब्द प्रकट हुआ और शब्द से ही कुल रचना, नूरानी ,रुहानी और जिस्मानी विकसित होती गई यानी शब्द धार जैसे-जैसे उतरती और मार्ग में मंडल बांधकर रचना करती आई वैसे वैसे ही रचना का विकास और विस्तार होता गया। रचना कुल का विस्तार मुख्यत: तीन स्तरों में है। रचना के पहले स्तर में हंस और परमहंस होते है, जिन्हें तुम संत और परम संत कहते हो ।यह मंडल 'नूरानी' है, महा प्रकाशवान, इस पूरे मंडल में प्रकाश ही प्रकाश है ,जिसे 'दयाल देश' कहां गया है, अगम, अलख और सत के मंडल इसी देश में आते है जो कि आगे की रचना का 'कारण' है । दूसरा स्तर ब्रहम सृष्टि का है ।यह 'रुहानी ' मंडल आत्मिक यानी 'सूक्ष्म ' है। इसी स्तर पर तनमात्रा यानी निराकार तत्वों का प्रभाव पैदा हुआ ।तीनों गुण, अट्ठारह प्रकृति ,मन, जीवात्मा, आत्मा और परमात्मा यानी ईश्वर और परमेश्वर या ब्रहम और पारब्रहम का विस्तार इसी स्तर से है और इनकी हद भी यही है। तीसरे स्तर में देवता ,मनुष्य और चारों खानों की देह रचना हुई जिसे तुम चौरासी कहते हो ।ये 'जिस्मानी' मंडल ,काल और माया का देश है जो कि 'स्थूल' नित परिवर्तनशील और नाशमान है। ' शब्द' से अर्थ उस धुन से है जो कि चैतन्य की धार के साथ हो रही है ।इसे ही सच्चा नाम, ध्वनात्मक नाम, आवाज़े गैब, कलामें इलाही, हुक्म मालिक का, अनहद नाद आदि कहा गया है। इस शब्द धुन का असर बड़ा भारी है यानी यहीं चैतन्य की शक्ति और उस की मौजूदगी का सबूत और निशान है ।तो जहां शब्द प्रकट है वहां चैतन्य प्रकट है और जहां शब्द गुप्त है वहां चैतन्य भी गुप्त है। हर एक स्तर पर शब्द, उस स्तर और मंडलों में स्थिति के अनुसार व्यापक है और उसी के प्रभाव से उस लोक या मंडल की रचना की हर गतिविधि जारी और कायम है । 'सुरत शब्द अभ्यास ' यानी भजन का अर्थ यही है कि अभ्यासी अपने अंतर मे उपरी मंडलों के शब्द को सुनता हुआ ,निज धाम मे, जहां से की आदी में शब्द प्रकट हुआ ,जा पहुंचे और शब्द की डोर को पकड़ कर एक से दूसरे मंडल को पार करता जाए। हर स्तर पर रचना की समस्त कारवाई शब्द यानी चैतन्य धन-धाऱ से ही है ।शब्द ही प्रेम और ज्ञान का मूल स्रोत है ।समस्त प्रकार की सोच बुद्धि ज्ञान, विज्ञान और विधाएं शब्द से ही है । शब्द से ही प्रेम ,प्रतीत, दया अदि आत्मिक गुण और ईर्षा ,विरोध, वैमनस्य जैसे विकारी मानसिक गुण पैदा होते है। क्योंकि कुल रचना यानी नूरानी ,रुहानी और जिस्मानी, फिर चाहे दयाल देश हो या काल-माया का देश , सब शब्द की समर्थ से ही पैदा हुई है और वर्तमान है। सच्चे खोजी और परमार्थी के लिए जरूरी है कि शब्द और शब्द में भेद को समझ कर और मन व माया की हरकतों से बचते हुए , दयाल देश में पहुंचने का निश्चय दृढ़ कर ले। दयाल देश में पहुंचने वाली धार का शब्द स्वरूप अलग है और काल माया के देश में भरमाने और भटकाने वाली धार का शब्द अलग है। इनका भेद संत सतगुरु वक्त के सानिध्य -सत्संग में ही समझा जा सकता है । दोहे सोरठा, चौपाईयों का अपने मन मुताबिक अर्थ करने वाले भेषो से कुछ हासिल ना होगा। संत सदगुरु वक्त से सच्चा प्रेम- प्रतीत और भक्ति ही उनकी दया और मेहर को ,अधिकारी जीव तक खिंच लाती है । तो सतगुरु वक्त से प्रीत की ऐसी डोर बांधो की छुड़ाये न छूटे, न परिजनों द्वारा ,न कुटुंब और समाज से ।यह अंतरयात्रा तो संत सदगुरु पूरे की सच्ची भक्ति ,सत्संग और सानिध्य में ही पूरी हो सकती है, उन्ही शब्द स्वरूप की दया और मेहर से जीव काल और माया की नशवर्ता के पार, अमर अजर अविनाशी आनंद के देश में जा सकता है ।अन्य कोई भी जतन या युक्ति इस" काल देश" में हमें नश्वरता और पुनर्जन्म के बंधनों से नहीं बचा सकती। इसलिए एक सच्चे खोजी और परमार्थी के लिए आवश्यक और उचित है कि पहले खोज संत सदगुरु वक्त की करें और उनकी संगत करे और उनसे सूरत शब्द का भेद पा कर अभ्यास रत हो, तब उसका उद्धार होते-होते सतगुरु वक्त की दया-मेहर से पूरा हो जाएगा ,वरना तो माया के धुरे में पड़े रहकर नए- नए रूपों में बिलबिलना ही पड़ेगा। राधास्वामी सदा सहाय, राधास्वामी जी , (राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित) |
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