Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा 52
तन के साधे साधना,मन के साधे साध।
आत्म तत्व ही सत्य है, शब्द सामने सत ।।

बहुतेरे हैं जो सत्य को ही सत मानकर, सत्य मार्ग पर चल पड़ते हैं और सत्य से वंचित रह जाते हैं। क्योंकि उनका लक्ष्य सत्य की खोज बन जाता है , न की सत की ।
हम इस बात को आसानी से नहीं समझ पाते हैं कि, सत्य की खोज जीवन का आधार है और सत की खोज जीव का । सत्य प्रत्यक्ष है और सत का तत्व अलख मैं छिपा है। जीवन सत्य है और सत है मुक्ति ना कि मोक्ष ।सत्य नाम है और सत है अनामि ........हर राधा का स्वामी।
नानक देव का उपदेश बताता है कि उस एक का जो नाम है ,वही ओंकार है। अन्य सभी नाम तो मनुष्य ने स्वयं ही गड़े हैं, पर एक ओंकार ही वह नाम है जो हमने नहीं गड़ा।
तो क्यों ओमकार ही उसका नाम है? क्योंकि जब सभी वर्णात्मक शब्द खो जाते हैं ,मन शांत और चित्र शून्य हो जाता है, सभी हिलोर और तरंगे कहीं पीछे छूट जाती हैं, तब जीव का चित अनन्त के सागर में प्रवेश करता है । वहां जो धुन गाज रही है वह ओमकार ही है ।यह किसी जीव या मन की रची हुई धुन नहीं है , यह अस्तित्व की धुन है । अस्तित्व के होने का एहसास ही ओंकार है । यही जगत का परम सत्य है पर सत का छोर इससे कहीं ऊपर है ।
ओम शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता ।यह कोई शब्द नहीं है, मात्र ध्वनि ही है। वह भी इतनी अनूठी की योग मार्गी और ब्रम्ह ज्ञानी इसका ओर छोर ना पा सके तो उन्होंने मान लिया कि इसका कोई स्रोत नहीं है और यही अंतिम पद है । यही है अस्तित्व का बोध। तो ज्ञानियों ने पाया की अस्तित्व ध्वनि से बना है और ध्वनि का ही एक रुप है विद्युत । पर विज्ञान कहता है कि विद्युत का एक रूप ध्वनि है। इन बातों में इतना ही फर्क है कि एक कहता है कि गिलास आधा भरा है और दूसरा कहता है कि गिलास आधा खाली है ।विज्ञान की खोज का मार्ग अलग है ।विज्ञान हर चीज को तोड़-तोड़ कर उसकी जड़ तक पहुंचता है ,जबकि योग मार्ग सभी चीजों को जोड़- जोड़ कर उसे एक अखंड तक पहुंचाता है और उस एक अखंड में पाई एक ध्वनि , अखण्ड , निरंतर और नाम दिया सत्य खंड ।

जब कोई समाधिस्त हो जाता है ,तब अपने भीतर इसी अखंड धुन को गूंजते पाता है ,अपने बाहर गूंजते पता है, सभी लोको और संपूर्ण ब्रहमांड में इसी एक धुवनि को व्याप्त पाता है। नानक देव ने बहुत बार नाम शब्द का प्रयोग किया है, तो इस बात का हमेशा ध्यान रखना कि नानक देव जब भी वह कहते हैं नाम ,उसका नाम ,सच्चा नाम ,सत्य नाम ही उसे पाने का मार्ग है और जो भी उसके नाम की रटन और सिमरन में डूब जाएगा वह उसे पा लेगा , तब ध्यान रखना कि नानक जब भी नाम लेते हैं ,तब उनका इशारा अक्षर ब्रम,प्रणव पद ओंकार ही है, जहां से संतों का मार्ग या सत का मार्ग शुरू होता है। क्योंकि यही वह नाम है जिसे किसी मनुष्य ने ना गड़ा। मनुष्य के गड़े नाम बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते।
संस्कृत में सत और सत्य दो शब्द हैं । सत अप्रतक्ष्य है और सत्य प्रत्यक्ष है ।जगत में बहुत कुछ है जो सत है पर सत्य नहीं और बहुत कुछ सत तो है पर स्तय नहीं । जैसे गणित सत्य है पर सत नहीं। सपना जो दिखते हो, वह सत्य नहीं है पर उसमें अंतकरण का सत छिपा है। परमात्मा सत और सत्य दोनों हैं । उसे न तो गढ़नाओं से सिद्ध किया जा सकता है और ना ही विज्ञान की विधाओं में खोजा जा सकता है ।क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को और गड़नाओ से भी सिद्ध होता है मात्र सत्य । उसे कला और काव्य में भी नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि कला खोजती है सत को और सत्य कहीं खो जाता है । तो जब हृदय और मस्तिक्ष एक हो जाते हैं , इसे ही मन का फिरना कहा गया है और तब ही जीव ओंकार के शब्द सार में प्रवेश कर पाता है । एक आध्यात्मिक व्यक्ति हर कलाकार से बड़ा कलाकार और हर विज्ञानी से बड़ा विज्ञानी है , क्योंकि उसकी खोज संयुक्त की है ।वह सत्य और सत की एक रूप में खोज करता है । वह दोनों को नहीं पर दोनों में से एक को खोजता है ।
....यही है सत मार्ग पर पहला कदम -"जोत निरंजन ओंकार "या" एक ओंकार " ।
एक ओंकार सतनाम अनामी,
राधास्वामी राधास्वामी ।
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

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