Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ३३

सतगुरु से करूँ पुकारी .
संतन मत कीजे ज़ारी ..
_ संत मत को आम तौर से ज़ारी करने के लिए ये प्रार्थना हुजुर महाराज (राय सालिग्राम जी माथुर) ने, स्वामी जी महाराज से की थी. इसी “शब्द” में हुजुर महाराज ने फ़रमाया है की, “ जैसी मौज आपकी हो, वैसी दया फरमावें. मैं हर तरह से आपकी राजा में राजी हूँ. चाहे मेरी ही सुरत अंतर में फेरें, चाहे सबका उद्धार फरमावें. जो मौज हो वही मंजूर है.” ये भला कैसे हो सकता था कि गुरमुख की प्रार्थना को सतगुरु नामंज़ूर फरमाते ? सतगुरु रूप दयाल ने अपने गुरमुख की प्रर्थना को भरी दया और मौज से मंज़ूर फ़रमाया और उसका निर्वाह भी किया.
यह एक सच्चे गुरमुख की आरती-प्रार्थना है, जो की सर्वांग सतगुरु की मौज और मर्जी में ही वर्तता है और सभी जीवों के उद्धार के लिए प्रार्थना करता है और गुरु की मौज में ही राजी रहता है. – यही सबसे उत्तम हालात है.
इससे निचले स्तर पर वे जीव हैं, जो चाहते तो सच्चे दिल से यही हैं की सभी संत मत में शामिल हों, लेकिन इसमें उनके “मन की ख़ुशी” भी शामिल होती है और वही प्रधान हो जाती है, न की मालिक की मौज. इससे भी निचला स्तर निकृष्ट कहलाता है, इस मानसिकता के लोग मन मत के अनुयायी होते हैं. जो की अपनी नाम बढ़ाई और प्रशंसा की चाहत में, मत के कार्यों को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं. अंततः खुद को ही सतगुरु प्रचारित करने लगते हैं. सांसारिक चाल का हाल तो यह है की, ऐसी मानसिकता से इत्तेफाक रखने वालों की गुटबंदियां, सच्चे सत्संगियों से कहीं बड़ी जमात बन जाती हैं. जो संतमत के नाम पर मनमत के प्रसार में जुट जाते हैं. क्यूंकि, इससे उनके मन की संतुष्टि और सांसारिक हित सध जाते हैं. तोइस तरह की जमात का लक्ष अंतर में नहीं पर सांसारिक धन-संपत्ति और मान बढ़ाई पर ही टिका होता है, स्वामी जी महाराज के गुप्त होने के बाद से ही मनमतों का ऐसा बिखराव होता चला आया है और हो रहा है. पर अच्छा ही है, इससे निर्मल सत्संग में छ्टौनी होती रहती है. पर बुरा यह हुआ कि मनमतों की जमात के आगे निर्मल सत्संग ही गुप्त हो गया. किस किस की कहूँ, हम सभी की द्रष्टि में अवगुण का दोष झलक रहा है, जिसकी जैसी अवगुण द्रष्टि, उतनी ही उसको सत्य की बर्दाश्त कम हो जाती है. फिर भी उद्धार तो सबका होना है, पर अपने-अपने अधिकार के अनुसार, कोई इसी जनम में तर जायेगा, कोई कुछ जनम बाद. यही दयाल की भरी दया है.
जो भी जीव सत्संग में उपदेश को ध्यान से सुन कर और अंतर में परख कर, मन में गुनेगा और बुद्धि से विचारेगा, और उसका मन इसके लिए हांमी भरेगा. तब ही उसका चित संतमत के सिद्धांतों को ग्रहण कर सकेगा, जो की एक सत्संगी के व्यवहार और वर्ताव में स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है.
जब सुरत और मन की धारें अंतर में एक हो कर आगे बढ़ती हैं तब धीरे-धीरे मन की धार, ब्रह्म में और सुरत की धार अंततः निज देश पहुँच जाती है. उस वक़्त, सुरत जिस आनंद का अनुभव करती है उसका वर्णन संभव नहीं है. उस आनंद सागर में रत हो कर सुरत, आनंद की मौजों में वास करती है और आनंद की लहरों और तरंगों का अनुभव करती है. और मालिक के सम्मुख प्रेम से सराबोर हो कर, उसकी आरत में लौलीन होती है. “आरत” का अर्थ है – आ यानि, मन-माया के सभी अंगों से अनभिज्ञ हो कर, मालिक कुल के सम्मुख सिमट आना और रत का अर्थ है, मालिक कुल के चरणों में, प्रेम रस में डूब कर और नतमस्तक हो कर लीन हो जाना.
जब मालिक कुल के चरणों में प्रीत पक्की हो जाएगी, तब काल-कर्म सब झूठे पड़ जायेंगे, उनके वार खली और धार थोथी हो जाती है. जीव के कर्मों की डोर अब मालिक के हाथों में होती है, तब ऐसा कोई कर्म ही जीव से नहीं बनता कि, जिस पर काल अपना प्रभाव डाल सके.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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