Sunday, 29 June 2014

जिज्ञासा ..............  27

यह कैसे संभव है  कि  कुल मालिक का कुल जौहर या सामर्थ  संत रूप देह में प्रगट हो जाती है  ........

मालिक कुल ज्ञान, बुद्धि, कलाओं और सामर्थों का भण्डार है। और यह  सभी कुछ मालिक के समक्ष तुलनात्मक दृष्टि से बहुत ही कम स्तर पर जीव  मे भी मौजूद है। इसीलिये  संतमत में कहा गया है कि मालिक सिन्धु के समान और जीव उसकी एक बूंद है।  जीव उस  बूंद के समान है जो सिन्धु से निकल कर माया रूपी मिट्टी के मैल में लिपट गयी है और अपने ही जैसों में घिर गई है।

पर संतों की सुरत उस लहर के समान है जो ज्वार-भाटे के समय सिन्धु से उठ कर दरिया के साथ मीलों दूर तक जाती  है और वापस लौट  कर सिन्धु में मिल जाती  है। तो संत लहर का यह सफर जहां तक होता है वह वहां तक की कीचड़ व मैल  में धंसी बूंदों(सुरतों) को भी अपने साथ वापस सिन्धु में  ले  आती है।         इस तरह संतों  की सुरत की डोरी मालिक के चरणों से लगी हुई है, जब  देह में उनकी सुरत  उतरती है,  तब वे जीव दशा में वर्ताव व व्यवहार  करते  हैं और जब ऊपर के मण्डलों में  चढ कर सत्य लोक में  पहुंचती है तब संत सुरत और मालिक में कोई भेद न रहा ।

राधास्वामी  जी
राधास्वामी  हैरिटेज
(संतमत   विश्वविधालय  की स्थापना के  प्रति   समर्पित)

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